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जो क्षमाशील होता है, वह दूसरों के दोषों को नहीं कहता। वह अपने निमित्त से किसी दूसरे को दुःखी नहीं करना चाहता । दूसरों के दोष देख कर चुप रहने में ही भलाई है ।
एक किसान और किसानिन थे। किसान तो उजड्ड था और किसानन शांत थी । 10-12 वर्ष दोनों को घर में रहते हुये हो गये थे, पर किसान उसे पीट न सका था। उसके मन में यह इच्छा सदा रहती थी कि कभी तो इसको दो चार मुक्के लगायें, पर उसे कभी मौका नहीं मिल पा रहा था। एक बार अषाढ़ के दिनों में दोपहर के समय किसान खेत जोत रहा था, और वह स्त्री रोज रोटी देने उसी समय आती थी । किसान ने जोतना बन्द कर दिया और एक बैल को पश्चिम की तरफ मुख करके जोत दिया और एक बैल को पूर्व की तरफ मुख करके जोत दिया और हल फँसा दिया । सोचा इस अनहोनी घटना को देखकर स्त्री कुछ-न-कुछ तो कहगी ही । ऐसे ही बच्चों का पालन पोषण हो जायेगा, ऐसे ही काम चल जायेगा इत्यादि कुछ-न-कुछ तो बोलेगी ही, बस हमें पीटने का मौका मिल जायेगा । उसकी स्त्री रोटी लेकर आयी और दूर से ही देखकर समझ गई कि आज तो हमें पीटने के ढंग हैं । वह आयी और बोली - चाहे सीधा जोतो, चाह उल्टा, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं है । हमारा काम तो केवल रोटी देने का था, सो लो । यह कहकर रोटी देकर वापिस चली गई । वह किसान इस बार भी उसे पीट न सका, सोचता ही रह गया। दूसरों के दोष देखकर जो चुप रहता है, वह बड़े-बड़े उपसर्गों में भी शान्त बना रहता है । उत्तम क्षमा वहाँ होती है, जहाँ दूसरों के दोषों का नहीं कहा जाता ।
यदि हम गुस्सा कर रहे हैं तो अन्ततः जिम्मेवार हम स्वयं हैं । कोई हमें गुस्सा करवा नहीं सकता। वह निमित्त मात्र बन सकता है ।
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