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________________ जैनत्व क्या है? 14 पूर्वो का सार-नवकार अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पांच नमस्कार सर्वपापों का नाश करने वाले हैं। सबका मंगल करने वाले हैं, प्रथम मंगल हैं। अरिहंत परमात्मा-जिन्होंने रागद्वेषादि समस्त शत्रुओं पर विजय पा ली। जिन्होंने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर अनन्त ज्ञान, दर्शनावरणीय कर्म का क्षय कर अनन्त दर्शन, मोहनीय कर्म का क्षय कर अनन्त सुख और अन्तराय कर्म का क्षय कर अनन्त वीर्य प्रकट कर लिया। राग-द्वेष को जीतकर परमवीतरागी हो गए। मोह को जीतकर परम निर्मोही हो गए। पांचों इन्द्रियों पर विजय कर जितेन्द्रिय हो गए। कषायों को पूर्णतः शान्त कर दिया। सदाकाल मात्र ज्ञाता-दृष्टा भाव में, आत्मा में ही लीन रहते हैं। आत्मा के ही अपूर्व आनन्द में मग्न रहते हैं। मन-वचन-काया होते हुए भी मनातीत, वचनातीत, कायातीत हो गए। इन्द्रियां होते हुए भी इन्द्रियातीत, परमं आत्मिक सुख में लीन रहते हैं। आत्मा के निज गुणों की घात (हानि) करने वाले घाती कर्मों का क्षय करने से नए कर्म का कोई कारण नहीं रहने से, पुनः जन्म-मरण नहीं करना है। शेष आयुष्य व्यतीत हो जाने पर, शेष अघाती कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब परिनिर्वाण को प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। जिन अरिहंत परमात्मा ने पूर्व किसी भव में तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का बंध किया, उसके उदय में, उनके उपदेश से जीव (मनुष्य) सम्यक्त्व प्राप्त कर, कोई साधु, कोई साध्वी, कोई श्रावक, कोई श्राविका हो जाते हैं ऐसे चार तीर्थों के संस्थापक-संचालक तीर्थंकर होते हैं। ऐसे अरिहंत और उनसे बोधित जो संयमी अरिहंत बनते हैं, गुणों की दृष्टि से सभी सम-गुणी होते हैं। गुणों की अपेक्षा अरिहंत और सिद्ध परमात्माओं में कोई अन्तर नहीं होता। अरिहंत भाव-मोक्ष में हैं, सिद्ध द्रव्य और भाव मोक्ष में होते हैं। तीर्थंकर के चार आत्मिक गुण होते हैं और एक भामण्डल तथा शेष देवों द्वारा रचित सात, कुल आठ महाप्रातिहार्य, समोशरण में होते हैं। ऐसे 12 गुण कहे जाते हैं।
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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