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________________ वही वाणी सद्गुरु निग्रंथ साधु-साध्वी से सुन-समझ-आत्मसात करता है। शरीरादि को अपना मानने, इन्द्रिय विषयों में ही सुख है, यह मिथ्या-मान्यता टूटती है, उसी से होने वाले मिथ्या मोहादि अंश-अंश में नष्ट होकर शुद्ध स्वरूप, वीतरागता, निर्मोह स्वरूप अंश-अंश में प्रकट होता है। इन्द्रियों से परे, मन से भी ऊपर, आत्मा के ही सुखामृत का आस्वाद आता है, परमानंद का अनुभव आता है। घर-गृहस्थी में रहते हुए ही इतना होता है। वह आत्मज्ञान, आत्म-बोध, जितने-जितने अंश में बढ़ता है, उतनी-उतनी शुद्ध आत्मा उसकी वीतरागता, निर्विकारी अवस्था प्रकट होती है। इन्द्रिय विषय और उनसे मिलने वाले सुख को, आत्मानंद की तुलना में हेय, अवांछनीय, अनाचरणीय, तुच्छ, त्याज्य (हीन, न्यून, छोड़ने योग्य) मानने लगता है। घर-गृहस्थी में रहते-रहते ही उस आनंद का अनुभव बढ़ना और क्रोधादि कषाय का मन्द होना, राग-द्वेष-मोह घटते जाना, इन्द्रिय विषयों के रस छूटते जाना, सब एक साथ होते, अत्यधिक आत्मानंद का अनुभव तो उन भोगों, रागी-द्वेषी-मोहियों के बीच रहते हुए होता है। भोगों में रस नहीं आता, अभोगवृत्ति होती है। उनमें आसक्ति घटती जाती है, विरक्ति, अनासक्त भाव होता है। उन्हीं में खूब रचा-पचा नहीं रह पाता। गृद्धता घटती है। उनमें लिप्त नहीं होता। कीचड़ में कमल के समान निर्लेप रहता है। मोक्ष-सुख कहें या आत्मिक सुख, एक ही बात है, बढ़ता जाता है, आत्मा के अपूर्व आनन्द को मोक्ष कहा है। कोई उसी में रहते-रहते उत्कृष्टतम दशा प्रकट कर सकता है। कोई सरल-विरल-विरले जीव ऐसा कर पाते हैं। आत्म पुरुषार्थ जगे तभी कर पाते हैं। तुच्छ और त्याज्य का परित्याग-तब संसार, सांसारिक भोगों से विरक्त हो, संसारियों, भोग साधनों, धन-वैभव का सहज परित्याग होता है। तुच्छ, त्याज्य तो केवली की वाणी सुनते-समझते-आत्मा में पक्का जमते ही हो जाता है। उसे शास्त्र की भाषा में चौथा, सम्यक्त्व, गुणस्थान कहते हैं। विषयों में विरक्ति, कषायों का शान्त होते जाना, फिर प्रथम पांच पापों में परिसीमा (घटाना) ही पांचवां व्रती गुणस्थान, घर-गृहस्थी में, इतने अधिक अंश में मोक्ष सुख, आत्मा का आनंद तो वहीं होता है। आवश्यकताएं, इच्छाएं बाह्य में इतनी कम हो जाती हैं कि आरंभ-समारंभ भी परिसीमित, कम-कम होता जाता है। मात्र जो संयोगी परिजनादि हैं उनसे ममता-मूर्छा पूरी टूटी नहीं, भार मान कर, भाड़ झोंक रहा हूं, निरर्थक की कर्मबंध कर रहा हूं, कब छूटूं, सर्वतः विरत हो जाऊं, ऐसे भावों के साथ कुछ समय घर-गृहस्थी में रहता है। इतनी हिंसा, झूठ, चोरी भी क्यों करूं, 75
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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