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________________ नहीं होने दे, जो शरीर आदि ही मेरे हैं, उसी में सुख है, ऐसा अहसास करवाता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहा है। उसी से शरीर आदि में ममता, मूर्च्छा, मोहासक्ति होती है, इन्द्रियों के माध्यम से मिलने वाले सुख ही अच्छे लगते हैं, वही सुख है, उसी के लिए जिस जीव की जितनी इन्द्रियां हों, जितना आयुष्य काल हो, पूरा काल उसी में लग जाता है। वैसे ही मनुष्य के पास पांच इन्द्रियां और मन वाला शरीर है। सारे विश्वलोक में समस्त मनुष्य मात्र इस भव के, वर्तमान के, इन्द्रियों से मिलने वाले सुख अधिक-से-अधिक मिलें, उसी हेतु पूरा जीवन लगाते हैं। उसी में आज का मनुष्य जीवन की सफलता मानता है। आत्मा का भान ही नहीं हो, श्रद्धा, प्रतीति, अनुभव ही न हो, वह दर्शन मोहनीय है, उसी से आत्मा के स्वयं के, सहज, स्वाभाविक परम आनन्द का अनुभव न होने दे उसे मोहनीय का दूसरा भेद चारित्र मोहनीय कर्म कहा। उससे होता है मिथ्या मोह। मेरे सभी गुण एक साथ उल्टे चल रहे हैं - इसके पीछे अज्ञान और मिथ्यात्व (अदर्शन) का बल है। वह अज्ञान और अदर्शन ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म से है। आत्मा के स्वयं के ज्ञान गुण, दर्शन गुण को ढकने वाले। वैसा ही अन्तराय कर्म है। आत्मा के वीर्य गुण को प्रकट नहीं होने देता। उपयोग शरीर, परिवार, धन वैभव, इन्द्रिय विषयों के भोगों में ही भटकता रहता है। सारी आत्मशक्ति उसी में लगती है। इन तीन के बल से मोहनीय कर्म कार्यरत हो मिथ्या भाव करके मोह (क्रोध, राग) आदि अनन्त विकारी भाव में ले जाता है। एक अपेक्षा से चारों घाती कर्म एक साथ कार्यरत हैं, परस्पर जुड़े हुए, एक-दूसरे के सहायक । सभी गुण एक साथ उल्टे चलते हैं। सभी गुण सुल्टे कैसे हों? कैसे, क्या करें? मनुष्य जन्म में ही यह कार्य संभव है। बुद्धि अन्य गतियों की अपेक्षा अच्छी मिली। परस्पर तय करके, अपने विचारों के आदान-प्रदान हेतु मनुष्यों के भिन्न-भिन्न समूहों ने अपनी-अपनी भाषा तय की, विकसित की, उससे भावों को व्यक्त करना, प्रकट करना, अन्य द्वारा ग्रहण करना, भाव समझना होता है। पांच इन्द्रियों वाले पशु-पक्षियों-पानी में भूमि में रहने वाले पंचेन्द्रिय जीवों के भी मन है, पर मनुष्य जैसी भाषा नहीं है। पूर्व भव विशिष्ट पुण्य से सत्गुरु की सत्वाणी सुनकर, सत्स्वरूप आत्मा और असत्-स्वरूप शरीर आदि का स्वरूप, भेद समझता है। वहीं से मोक्ष का प्रारंभ होता है। ज्ञान पर से आवरण हटता है, अपने आपका, शरीरादि से भिन्न शुद्ध आत्मा का ज्ञान, केवली परमात्मा - तीर्थंकर की वाणी से, वे नहीं हैं अभी यहां तब 74
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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