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________________ पाप बंध क्यों करूं, कम-मंद होते हैं। एक दिन सर्व विरति संयम ले लेता है। विषय-कषाय तो वहीं मंद हो रहे थे, कृश कर रहा था, आत्मानंद बढ़ता जा रहा था, सातवें गुणस्थान जैसी अप्रमत्त साधना, स्वाध्याय-स्वयं का अध्ययन, मनन, चिंतन, ध्यान दृढ़ होता जा रहा था। बाह्य में दिखा, जब पांच महाव्रत लिए। पहले भाव साधुता, फिर द्रव्य साधुता, ऐसा मोक्ष सुख का क्रम है। केवल ज्ञान के लगभग भूमिका अप्रमत्त आत्मसाधना-संयम लेने पर सत्गुरु का परम समागम, सत्श्रुत श्रवण, श्रद्धान, ज्ञान, विरति, अप्रमत्ता बढ़ती जाती है। आत्मध्यान, अप्रमत्त साधना इतनी बढ़ जाती है कि कुछ ही समय में पूर्ण वीतरागता, शुद्धता प्रकट हो जाए समस्त कषाय-विकार नष्ट हो जाएं पर भरत क्षेत्र में, पांचवें आरे में केवल ज्ञान का पुरुषार्थ नहीं होता। अधिकांशतः 99.09% तक मोक्ष सुख, आत्म सुख होता है। जरा सा रागांश, कर्मांश रह जाता है, उससे शुभतम देव गति का बंध होता है। एक अगला मनुष्य भव पा, सर्वविरति संयम विरहमान परमात्मा के सानिध्य में, महाविदेह में, पालते, पूर्ण वीतराग संयम, परम वीतरागता, परम आत्मशुद्धि केवल ज्ञान हो जाए फिर मोक्ष हो जाता है। कभी पुरुषार्थ में किसी साधक के यहां-वहां कमी रह जाए तो तीन भव, सात-आठ भव, 15वें भव में मोक्ष चला जाता है। इसलिए यह सोचकर कि अभी मोक्ष नहीं है अतः खूब खाओ, पीओ, मस्त रहो, चार्वाकवादी-नास्तिक बन भवभ्रमण नहीं बढ़ाना। यह अमूल्य मनुष्य जन्म और वीतरागवाणी श्रवण का स्वर्णिम अवसर मिला उसे शरीर, परिवार, धन, वैभव, भोगों में ही रत, अनुरक्त, आसक्त, गृद्ध रहकर गंवाना नहीं है, अन्त समय पछताना नहीं पड़ेगा 'कालचंद' न जाने कब आ धमके, प्रतिपल उसे ध्यान में रखकर परायों के काम से शीघ्र निवृत्ति ले, अपना, आत्मा का कार्य करना है। सम्यक्त्व हुई और मोक्ष निश्चित-इन नौ तत्वों का जैसा स्वरूप तीर्थंकर परमात्मा ने फरमाया, भावतः वैसा ही समझ, अवधारणा पक्की, समझ पक्की कर, उन पर श्रद्धान, आत्म श्रद्धान पक्का करने से सम्यक्त्व और उसी से मोक्ष, ऐसे नौ तत्वों का कथन पूरा हुआ मानें। आत्मसाधना में, मोक्षार्थ साधना में जाति-वेष, लिंग बाधक नहीं-भगवान् महावीर किसी अपेक्षा से कर्मवादी हैं, वस्तुतः अकर्मवादी हैं-आत्मसाधना में मुख्य है, आत्मा का पुरुषार्थ, आत्मा के ज्ञान, दर्शन गुण, आत्मा में से ही प्रकट 1764
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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