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उससे आने वाले कर्म रोकने, उस रसलोलुपता, गृद्धता को तोड़ने, रूखा-सूखा, नीरस, दूध-दही-घी-तेल-मीठा (पांच विगय) से रहित भोजन लेना, रस-का-राजा नमक बिना भोजन करना (नीवी, आयंबिल, विगय त्याग, नमक त्याग) रस-परित्याग करना, ये तीन बाह्य तप शरीर और जिव्हा पर विजय हेतु हैं। यदि बिना खेद खिन्न हुए, बिना दुखी, आर्त हुए, उस परित्याग के साथ आत्मध्यान साधना हो तो पूर्व संचित कर्म की निर्जरा होती है।
तप की अवधि में आरंभ-समारंभ क्यों? पक्का ध्यान रखें, आत्मा-शरीर की भिन्नता, आत्मज्ञान, आत्मदर्शन के बिना बाह्य तप, कुछ शुभ भाव में जाने से, थोड़ा सा पुण्य बंध करेंगे और मिथ्यात्व पड़ा है अतः भवभ्रमण निरन्तर रहेगा। सम्यक् ज्ञान-सम्यक् दर्शन बिना बाह्य त्याग, बाह्य तप का निषेध नहीं है, यदि उस निमित्त से सद्गुरु का समागम, सत्श्रुत श्रवण हो जाए तो आत्मावबोध हो सकता है। यदि ऐसा बाह्य त्याग, तप कर, उसी अवधि-काल में सारा आरंभ समारम्भ, कषाय आदि चल रहे हैं तो पाप-बंध जारी है। तुलना में लेशमात्र कुछ पुण्य है। उसे संवर-निर्जरा मान लेने का भ्रम मत पालो।।
भिक्षाचरी, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, मुख्यतः संयमी साधक करते हैं। शालिभद्रसम समृद्धि, पद-प्रतिष्ठा, सर्वस्व का त्याग कर, याचना से संयम निर्वाह हेतु शरीर टिकाए रखने हेतु आहार मांग कर खाना, मान का मर्दन किए बिना संभव नहीं होता। अहंकार और दीनता रहित आहार-याचक भिक्षु की भिक्षाचरी एक कठिन तप है। मिले, न मिले, सरस मिले, नीरस मिले, समभाव में रहना, आत्मभाव से विचलित न होना, निर्जरा माना है। शीत परीषह, उष्ण परीषह सहन करते हुए आत्मध्यान में रहना निर्जरा है। काया को क्लेश या कष्ट का अनुभव नहीं होता। मैंने इससे अपनेपन का जितना संबंध मान रखा है, उतनी ही भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी की वेदनानुभूति मुझे (आत्मा को) होती है। चाहकर उस शरीरासक्ति को तोड़ने के लिए शीत आतापना, उष्ण आतापना लेना आदि कायक्लेश तप हैं। अनार्य क्षेत्र में अनार्य दुखी करें, सर्प की बांबी पर जाएं, चंड कौशिक डस ले, ऐसे घोर शरीर कष्ट साधक स्वयं मोल लेकर उसी निमित्त में आत्मध्यान में लीन रहता है, प्रतिसलीनता का तप है। बाह्य में सभी होने वाले तप, आभ्यांतर साधना करते हुए सहज होते हैं। करने, दिखाने नहीं हैं। दिखावा किया कि मान कषाय का महापाप होगा।
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