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पड़ गया, आवरण आ गया, ज्ञानावरणीय कर्म से। दर्शन पर आवरण आ गया, उसे कहा-दर्शनावरणीय कर्म। स्वयं को न जानना, स्वयं को न देखना, शरीरादि-पराए पदार्थ को मेरा है, ऐसा जानना, ऐसा देखना, उससे हुआ, उस पर मोह, यह मोहनीय कर्म, मोहनीय कर्म में एक है, दर्शन मोहनीय, स्वयं को भूले बैठे रहना
और पराये को अपना जानना-मानना। उससे, मोहनीय कर्म का दूसरा भेद-चारित्र मोहनीय। उससे पराये पदार्थ से प्रीति, ममत्व, मिथ्या मोह, क्षणिक इन्द्रिय सुख ही परम लक्ष्य, उसी में सारा पुरुषार्थ, उपयोग गुण, निरन्तर बाहर ही बाहर भटकना। उसी से कषाय, उसी से हिंसादि पाप। उसी से कर्म का आश्रव-बंध, उसी से अनन्त जन्म-मरण का अनन्त दुख।
(7) संवर का क्रम : अंश-अंश करते पूर्ण संवर : कर्म से अकर्म में जाना संवर-मिथ्या मान्यता, मिथ्यात्व, मिथ्या दर्शन शल्य, दर्शन मोहनीय कर्म से मिथ्या भाव आने पर पूर्णतः रोक लगा देना, सम्यक्त्व-संवर। अज्ञानान्धकार से ज्ञान का प्रकाश होने से आत्मा अपने ही, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम से, आत्मा में संवृत होता हुआ, मिथ्या मोहादि को बंद या प्रथमतः मन्द करते-करते बंद करे तो अंश-अंश संवर से पूर्ण संवर। आत्मज्ञान-आत्मदर्शन के बल पर, जो हिंसा-झूठ-चोरी-अब्रह्म सेवन, परिग्रह से आश्रव हो रहा है, मंद, न्यून, स्थूलतः परित्याग या सर्वथा परित्याग करता है तो इन पंच-पापों से विरतिरूप संवर हुआ। उससे संयमित, इन्द्रिय-संयम करता हुआ, कषायों को उपशान्त-उपशमित करता है तो कषाय-संवर। पर-पदार्थ में प्रवृत्ति रूप प्रमाद से, आत्म-वृत्ति कर अप्रमत्त, ज्ञाता-द्रष्टा भाव में जाता है तो पूर्ण संवर, तत्काल में कर्मों के आने के सर्व द्वार बंद, मन-वचन-काया की प्रवृत्ति, क्रिया, कर्म, कार्य से भी परे, अक्रिय, उस काल, उन क्षणों में समस्त शुभाशुभ अध्यवसायों, भावों, परिणामों, परिणमन के स्थान पर, पर-गुण-परिणमन के भ्रम को तोड़कर मात्र स्व-गुण-परिणमन| स्व गुण है-मात्र जानना, मात्र देखना। साथ में कोई रागादि की क्रिया नहीं, प्रवृत्ति से निवृत्ति, रागादि से परे वीतरागता, विकार से रहित निर्विकारिता, आकुलता-व्याकुलता से निराकुलता, संकल्प-विकल्पों से परे निर्विकल्प, क्रिया से अक्रिय, कर्म से अकर्म, वह हुआ संवर। शुद्ध संवर, पूर्ण संवर। उसमें आत्मा अपने ही ज्ञान गुण से अपने आपको जानता है, अपने ही दर्शन गुण से अपने आपको देखता है। अपने ही सुख (स्वरूपानन्द) गुण से, इन्द्रिय विषयों के माध्यम से मिलने वाले क्षणिक सुख के स्थान पर, आत्मिक-सुख आत्मानंद में लीन होता है। मन का मनन, वचन का उच्चारण, काया की क्रिया पर
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