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( आर्त्तध्यान करना), हाय विलाप करना, हींजरना, नए कर्म का आश्रव । तभी साधक की सावधानी चाहिए। ज्ञान-दर्शन, वीतराग वचन-बल, उसे चेता देगा। संवृत हो जाएगा। अपनी ही भूल से कर्म का आश्रव । ज्ञानी के वचन से वह भूल सुधरी, पूर्व के कर्मोदय से अनुकूल-प्रतिकूल व्यक्ति के मिलने पर राग-द्वेष नहीं किया तो सब कर्मों का आना रोक दिया, अवरुद्ध कर दिया, मार्ग अनिरुद्ध कर दिया, कर्मों के प्रवाह को, धारा को थाम लिया, संवर हो गया। मनोज्ञ-अमनोज्ञ वस्तु-संयोग में रतिभाव (मन को भाना, रूचना, इन्द्रियों से संतुष्टि का अहसास करना), प्रतिकूल संयोग में अरतिभाव (अरुचि आदि) कर्मों का द्वार खुल गया, रति-अरति से परे (देशतः अंश में या पूर्णतः) विरत (निरत) (निवृत्त) (परे) हटते ही संवर। इष्टकारी और अनिष्टकारी स्थितियां, वातावरण, निमित्त कारण बनते ही हर्ष या शोक करते ही कर्मों का आना, आश्रव, उसके स्थान पर तटस्थ भाव, मध्यस्थ भाव, समभाव, स्वभाव, शान्त भाव, सहज भाव, आत्म भाव में जाते ही संवर। साताकारी या असाताकारी परिस्थितियां, पूर्व कर्म संयोग से, आते ही उनमें आसक्त, गृद्ध, रक्त, लिप्त, लिप्सा, स्पृहा, आकांक्षा, भोग भाव या असाताकारी में घृणा, वितृष्णा, तिरस्कार, ऐसे विकृत भाव आते ही आश्रव, नए कर्मों का आना । उसके स्थान पर अनासक्त, अगृद्ध, अरस, नीरस, उदासीन, निर्लिप्त, अलिप्त, निस्पृह, अनाकांक्षा (आकुलता-व्याकुलता के स्थान पर) निराकुल, अनासक्त होते ही कर्मों का आना रुका-संवर हो गया।
पापाश्रव निरोध भी एक अपेक्षा से संवर अपेक्षा से, पाप स्थानों का सेवन नहीं कर कर्म के आश्रव को रोकना भी संवर है, इन्हें मंद करना भी उतने अंश में संवर है। चूंकि अधिकांश में पाप हो रहा है तो आश्रव भी चल रहा है। यदि पाप-सेवन के स्थान पर पापों में प्रवृत्ति से निवृत्त होकर पुण्य प्रवृत्ति में लग गया, तो पुण्य का आश्रव, कर्मों का आना, बंधना कायम रहा, गति-भ्रमण भी नहीं रुकेगा, शुभ गतियों में जाएगा। मिथ्यात्व नहीं गया तो उसके कारण शुभ गतियों के सुख में गृद्ध, आसक्त हो, इन्द्रियासक्त हो पुनः पाप बंध कर लेगा, चतुर्गति-भ्रमण निरन्तर रहेगा। अतः लक्ष्य तो समस्त शुभाशुभ, शुभ अर्थात् नौ प्रकार की पुण्य प्रवृत्तियां, अशुभ अर्थात् 18 प्रकार की पाप प्रवृत्तियां, सबसे निवृत्ति से संवर होता है। प्रवृत्ति, क्रिया, कार्य, कृत्य, कर्म सभी को समान अर्थ में लें। ये सभी शुभ अशुभ रूकें तो संवर।
आश्रव में हाथी द्वार है - मिथ्या मान्यता । आत्मा के अनन्त ज्ञान पर पर्दा
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