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________________ " से ध्यान हटा, आत्मा में अडोल-अकंप स्थिर होता है, उन क्षणों में सर्व शुभ या अशुभ, शुभ में भी प्रशस्त शुभ से प्रशस्ततम धर्मानुरागरूप क्रिया से भी परे होता है। वह क्षण सर्व कर्मों के आने के मार्ग को अवरुद्ध करने रूप संवर का होता है। जो आश्रव-बंध के कारण कहे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योगों में प्रवृत्ति, उन सब कारणों को बंद करना संवर हुआ । मिथ्यात्व के स्थान पर सम्यक्त्व, अविरति से विरति कषाय से अकषाय भाव वीतरागता प्रमाद से अप्रमाद (अप्रमत्त ज्ञाता, द्रष्टा भाव) और योग ( मन, वचन, काया) के शुभाशुभ व्यापार का थम जाना, पांचों को सुलटा कर दो तो आश्रव के स्थान पर हुआ संवर। उस हेतु जिन निमित्तों से कर्म का आश्रव हो रहा था, उनका परित्याग, पूर्णतः छोड़ना, द्रव्य संवर और जिन निमित्तों पर पदार्थों से पर भाव हो रहा था, उससे परे हो स्वभाव में, स्व-गुण परिणमन से, स्व, स्वात्मा में रमण से, स्वरूपरमण से परम भाव संवर। कर्मों का आना ही थम गया, पूर्णतः रुक गया। यह संवर तत्व का स्वरूप पूरा हुआ। " " क्या गृहस्थी में ऐसा संवर संभव है? ऐसा आत्मा द्वारा आत्मा में संवृत होना, पूर्ण, शुद्ध संवर तो सातवें गुण स्थान वर्ती साधु-साध्वी ही कर सकते हैं। क्या गृह-गृहस्थी में रहते, व्यापार व्यवसाय करते, नौकरी करते भी संभव हैं? हां, संभव है, ऊपर कहा जिन क्षणों में, जिस काल में शुभ और अशुभ, प्रशस्ततम शुभ से भी परे स्वरूप में स्थित हो, वही तो संवर है अभ्यास कर अनुभव करें कि सर्व बाह्य जंजाल से परे, एकान्त, शान्त हो बैठें, बाहर में नीरव शान्त वातावरण, भीतर पूर्ण विश्रान्ति, परम शान्ति, यह अभ्यास और अनुभवगम्य है। द्रव्यतः सर्व पर द्रव्य से हटकर फिर परम संयोगी शरीर, उसकी ऊंची-नीची क्रिया, परिणति, वेदनादि के माध्यम से होने वाले विकल्प, आकुलता से परे होने का निरन्तर अभ्यास करें तो उन क्षणों में आत्म- स्थिरता बढ़ती जाएगी, आत्मा के अपूर्व आनन्द का आस्वाद, आत्मामृत पान होने पर वह शुद्ध संवर होगा जिसमें सर्व क्रियाओं से परे अक्रिय होंगे। अति जंजाल संवर में बाधक है जिसके बाह्य में जितने अधिक जाल- जंजाल, चिंता, दुख, क्लेश, परेशानियां, परिताप, दुस्वप्न, दुर्भाव, तनाव, मोह, ममता, मूर्च्छा, तृष्णा, इच्छा, आकांक्षा, कामना, वासना, तृष्णा, महत्वाकांक्षा, मृगतृष्णा आदि विकार के कारण होंगे, उसका संवृत होना, इन कारणों से कर्मों के निरन्तर आने रूप आश्रवों को रोकना, संवर में जाना, उतना ही 62 A
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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