SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर जन्म-मरण के दुख से मुक्त हो जाऊं, यही, और यही एकमात्र लक्ष्य है। न बाएं, न दाएं, न पाप, न पुण्य। न अधोगति, न उच्चगति। मात्र उलटघूम। संसार, चतुर्गतिरूप संसार से दृष्टि हटाकर मात्र आत्म-दृष्टि, स्व-दृष्टि कर मुक्त होने में जुट जाऊं, बस। अब एकमात्र लक्ष्य मोक्ष का हो-गृहस्थ, जिसने आत्मज्ञान पा लिया, सम्यक्त्व हो गई, आगे बढ़ 12 व्रतों की आराधना में लग गया, ऐसे चौथे या पांचवें गुणस्थानवर्ती, दोनों का लक्ष्य तो मात्र आत्मशुद्धि कर मुक्त होना है। बाएं-नरक, दाएं-स्वर्ग, दोनों नहीं, मात्र गति मुक्ति। घर-गृहस्थी, नौकरी, व्यापार-व्यवसायादि का, मूलतः शरीर का कार्य करते हुए भी, उसमें अधिक समय जाया हो रहा हो, फिर भी आत्म-शुद्धि, आत्मा के, अपने कार्य को सर्वोपरिता देता है, शेष, शरीरादि-कार्य को गौण-हेय, भार, भाड़-झोंकना, कारागृह, जंजाल मानकर अधिक-से-अधिक समय उससे परे हो आत्मसाधना में लगू, यह सोचो। लक्ष्य-पूर्णतः परायों के कार्य से परे हो मात्र आत्म लक्ष्य। पुण्य-रूपी भूसा सहज मिलता है-उपमा से समझें-किसान दो प्रकार की खेती करता है। एक दाना प्राप्त करना। दूसरा भूसा पैदा करना। दाने के साथ, सह-उत्पाद-भूसा तो सहज है। वैसे ही, संवर-निर्जरा का कार्य करते हुए, साथ में होने वाले शुभ भाव से पुण्य तो सहज अर्जित होता रहता है। साधना करते हुए, इतने कषाय को तो कृश कर दिया, निःशेष कर दिया, इतना अवशिष्ट भी नष्ट कर दूं-यह शुभ भाव सहज पुण्य उत्पन्न करता है। जिस गृहस्थ के घर में, किसान के जैसे बहुत सारे, ढोर अधिक हों, तो भूसा अधिक मिले, दाना अत्यल्प, ऐसी दूसरी खेती करता है, वैसी बहुत परिजन हों, (ढोर) उन्हें बहुत सी आवश्यकताओं की पूर्ति में, समस्या-निवारण में वस्तुऐं-साधन-सुविधाएं चाहिए, वे गृहस्थ पुण्य-रूपी भूसे-कचरे वाली खेती करो। पुण्य करो। संवर-निर्जरा-रूप दाना नहीं मिलेगा। पुण्य कमाने का लोभ, मान आदि कषाय है-पाप है। सम्यक्त्वी भवभीरू होता है। उसे सातों, सातवें मरण का भी भय नहीं होता। क्योंकि पक्का, आत्मसात कर लिया होता है कि मरने वाला तो यह शरीर है, मैं तो अजन्मा, अजर, अजर, (अर्थात् बूढ़ा होना-जरावस्था) अमर आत्मा हूं। परन्तु उसे यह भय रहता है कि, मैं प्रमाद में जाकर, कभी ऐसा कार्य न कर बैलूं कि मेरा भव बढ़ जाए। भवभीरू, पापभीरू बनो। पाप से, पाप करने से डरो, भव से डरो अन्य किसी से नहीं। 1584
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy