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________________ पूणिया श्रावक) एक भव करके चले जाएंगे। पुण्य के फल से बाह्य में अनुकूलताएं मिलती हैं। पाप के फल में प्रतिकूलताएं मिलती हैं। आत्मपुरुषार्थी वीतरागवाणी के अनुसार पुरुषार्थ करे तो प्रतिकूलता में भी आत्मार्थ साध लेता है और हीन-उल्टा पुरुषार्थ करने वाला, पुण्य भोगकर चतुर्गति में भटकता रहता है। पुण्य से अनकलताओं, पाप से प्रतिकूलताओं से मोक्षार्थ का कोई सबंध नहीं है। उसे भी छोड़ना पड़ता है। पुण्य से प्राप्त सर्व अनुकूल परिजनों, सुख-साधनों-वैभव को भी छोड़ना ही पड़ेगा और पुण्य से मिले मनुष्य शरीर से भी दृष्टि हटाकर आत्मा में लीन होने से मुक्त होता है। पाप के उदय से मिली प्रतिकूलताओं से भी दृष्टि हटाकर, प्रतिकूल शरीर से भी दृष्टि हटाकर आत्मरमणता से मुक्ति है। क्या पुण्य करूं? मात्र गृहस्थ, चौथा, पांचवां गुण स्थानवर्ती है, अभी शरीर, परिवार उस हेतु सारा आरम्भ-समारंभ है, मोह-ममता-मूर्छा, फिर हिंसादि पाप से बंध, आश्रव पाप का हो रहा है, वह पूछे कि पुण्य का कार्य करूं क्या तो उत्तर है-जो धन, शक्ति, समय पुण्योदय और वर्तमान पुरुषार्थ से मिले यदि स्व-शरीर, इन्द्रियासक्ति, परिवार की मोहासक्ति में पड़ वहां लगा रहे हो तो पापाश्रव कर अधोगति में मत जाओ, उसे मूक पशु-पक्षियों, असहाय मनुष्यों के हितार्थ, निस्वार्थ भाव से, बिना प्रतिफल की चाह के, लगाओगे तो पापाश्रव से पुण्याश्रव कर सुगति में जाओगे। पर यहीं बात पूरी नहीं हुई। चेतावनी : लक्ष्य तो संवर, निर्जरा, मोक्ष का ही रखो। पाप की अपेक्षा पुण्य श्रेष्ठतर है, उपादेय है। परन्तु संवर-निर्जरा की अपेक्षा निकृष्ट है, हेय है। आरम्भ-समारम्भ, मोह-ममता में पड़कर घर-गृहस्थी के कार्य में लगने वाले समय को काटकर पशु-पक्षी-सेवा, गोसेवा, समाज सेवा, श्रीसंघ सेवा में लगाना श्रेष्ठ है। परन्तु इन सेवाओं के कारण समत्व-साधनारूप सामायिक, पौषध की आत्म-साधना, कृत-पाप-कर्म-धोकर आत्म शुद्धि करने रूप प्रतिक्रमण करने, ज्ञान, आत्मज्ञान प्राप्तिकर, सम्यक्त्व की विशुद्धि, चारित्र की विशुद्धि का मूल स्वाध्याय, ध्यान साधना से वंचित होते हैं, इनमें बाधा पड़ती है तो उक्त सेवाओं से भी तब हट जाएं। अब और पुण्य क्यों चाहिए? पुण्य अर्जित करूं, यह भाव ही क्यों? इतना पुण्य करके मैं आ गया, सातिशय, विशिष्ट पुण्य करके आ गया कि परम वीतरागी की परम अमृतवाणी श्रवणकर, श्रद्धाकर, आत्मसात कर, उसी अमृतत्व में डूब कर अमर हो जाऊं, अब, इससे अधिक पुण्य कौन सा चाहिए? अब तो आत्म-पुरुषार्थ =57
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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