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________________ होता है। मूल में तो इस मिथ्या-मान्यता और अज्ञानता से अनन्त कर्म का आश्रव होता है। उसी कारण बाह्य में राग-द्वेषादि होते हैं वह आश्रव का मूल हुआ। शुभ-अशुभ भाव से आश्रव-आत्मा के निरन्तर, प्रति समय होने वाले शुभ या अशुभ भावों से कर्माश्रव हो रहा है। शुभ में नौ प्रकार के भाव आते हैं। अशुभ में हिंसा से मिथ्या दर्शन शल्य तक के 18 पाप आते हैं। शुभ भाव से पुण्याश्रव, अशुभ भाव से पापाश्रव। दिगम्बर आगमों में मूल-मुख्य, कुंदकुंदाचार्य रचित समयसार है, उसमें पुण्य, पाप दो तत्व मिलकर नौ तत्व आए हैं। उमास्वामिरचित तत्वार्थ सूत्र में पुण्य-पाप तत्व नहीं है। सात तत्व हैं। पुण्य-पाप इन दोनों का समावेश आश्रव में हो गया। एक सुखपूर्वक भोगा जा सके, ऐसी गति, मनुष्य गति देवगति में ले जाने वाला और दूसरा दुखपूर्वक, तीव्रतम दुखपूर्वक भोगा जाने वाला, तिर्यंच और नरक गति में ले जाता है। आश्रव दोनों से है। गति भ्रमण दोनों में है। बंध दोनों से होगा। पुण्य से मनुष्य भव आदि : उसमें मजा ले तो पापाश्रव-पुण्य से, अनन्त पुण्य से ही यह मनुष्य भव, पांचों इन्द्रियां परिपूर्ण, नीरोगी काया मिली। बुद्धि तेज मिली। बाह्य में देखें-आर्यक्षेत्र जहां आर्य सभ्यता-संस्कृति-धर्म-दर्शन हो, वह मिला। पर्याप्त आजीविका के साधन, अनुकूल परिजनादि मिले। अतः पुण्य और उसके अनुकूल फल से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। आगम प्रमाण भी है। पापाश्रव भी पुण्य के उदय में होता है। पुण्य से, साता वेदनीय कर्म से उक्त अनुकूलताएं मिलीं और उनका भोग भोगकर खूब रस लिया, उनमें सुख माना, आसक्त हुए, गृद्ध हुए, जितने अधिक भोग-साधन, उतना ही अधिक उसी में आज, आकंठ, डूबे दिखते हैं तो पुण्य के फल का क्या सार निकाला? पुनः जीवनभर ऐसा पापाश्रव किया कि अधोगति में जाना पड़े। केवलिप्रज्ञप्त वाणी श्रवण एक विशिष्ट, सातिशय पुण्य के उदय में मिलता है। पापोदय में भी मोक्ष-मानो, पाप के उदय में कोमल कृश शरीर मिला (गज सुकुमार) काला-कलूटा-उबड़ा-कुबड़ा शरीर मिला (हरिकेशी) कुल भी चांडाल का मिला, आजीविका भी इतनी कम कि पति-पत्नी दोनों की उदरपूर्ति ही न हो (पूणिया श्रावक) छबड़ी भरकर चौराहे पर फूल-मालाएं बेचने जैसा न्यून आजीविका का साधन मिला। (अर्जुनमाला) जो कहते हैं कि पुण्योदय की पृष्ठभूमि से आत्म साधना होती है, सही नहीं है। चक्रवर्ती जितनी ऋद्धि सम्पन्नता (कोणिक) या चक्रवर्तित्व भी मिल जाए (ब्रदत्त चक्री) भोग भोगकर नारकी में चले जाते हैं। उक्त विपन्न न्यूनतम आजीविका, निकृष्ट कुल-शरीर वाले भी मोक्ष चले गए (एक 1564
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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