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________________ कामना करे कि मेरे संयम और तप का कोई फल हो तो मुझे यह ऋद्धि-सिद्धि, ऐश्वर्य, इन्द्रिय-विषयों के सुख मिलें। उस दोष का पश्चाताप-प्रायश्चित, धिक्कार किए बिना आयुष्य पूरा हो जाए तब अगले भव में उसे वह सुख मिल सकता है। परन्तु उसने हीरे के बदले कोयला मांग लिया। संयम और तप का फल तो कर्मों के आने के द्वार बंद करने रूप संवर है। पूर्वोपार्जित कर्म की निर्जरा और मुक्ति है। अतीन्द्रिय आत्मिक सुख है। परम आनन्द है। उसने मात्र इन्द्रिय विषय सुख मांग लिया। वह अनुपम मोक्ष सुख पाने के स्थान पर क्षणिक इन्द्रिय-सुख मांग लेता है, यही हीरे के बदले कोयला मांगना है। उसी से घोर मिथ्यात्व आ जाता है। सुख भोगकर, फिर चतुर्गति में भटकता रहेगा। मिथ्यात्व का स्वरूप पहले आ गया। ऐसे पाप-बंध का कथन पूरा हुआ। (6) आश्रव तत्व-कर्म के आने को आश्रव कहते हैं। आत्मा के शुद्ध भाव और अशुद्ध भाव, दो भेद हैं। शुद्ध के कोई भेद नहीं होते। शुद्ध भाव है-ज्ञाता-द्रष्टा। मात्र जानना, मात्र देखना। स्वयं ही स्वयं के ज्ञान गुण से स्वयं को जाने, स्वयं ही स्वयं के दर्शन गुण से स्वयं को देखे। ऐसा आत्मा का स्वरूप, स्वभाव, गुण, लक्षण है। जाना कि प्रियजन है, प्रियता की क्रिया, जाना कि अप्रिय (शत्रु) है, अप्रियता (शत्रुता) की प्रतिक्रिया की। प्रियता, प्रीति या अप्रियता-अप्रीति, राग या द्वेष ये आत्मा के अशुद्ध भाव हैं, विकार हैं। स्वभाव तो आत्मा का शुद्ध-निर्मल, निर्विकारी है परन्तु अनादि अज्ञानादि बंध पर्याय से, अनादि से यह विकारी हो रहा है। जैसे शीतल स्वभावी पानी, अग्नि-संयोगी उष्ण-स्वरूपी लगता है, जला देता है परन्तु पर-संयोग से वह गुण दब, ढक गया, नष्ट नहीं हुआ। प्रमाण? उसी पानी को अग्नि से हटा दो, स्वतः ठंडा, स्वभाव प्रकट हो गया। उष्ण लगने वाले पानी को आग पर डालो, आग बुझ जाएगी, इससे सिद्ध होता है कि वस्तु का स्वभाव नष्ट नहीं होता। हानि पहुंचाने वाले, गाली देने वाले का निमित्त, संयोग मिला, पूर्व में संयोगित, क्रोध मोहनीय कषाय कर्म का भी संयोग मिला, आत्मा क्रोधी, क्रुद्ध, क्षुब्ध, कुपित, उत्तेजित होते दिखा, क्रोधी कहा जाएगा, क्रोध का कर्त्ता कहा जाता है परन्तु संयोग हटते ही, वीतराग वचन के संयोग से भाव आया-मैं क्रोध-स्वभावी नहीं, शान्त स्वभावी हूं, समझा स्वरूप को, मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूं, क्रोध का शमन, शान्त, परमशान्त हुआ। जीव के विकार से पुद्गल विकारी उसी से जीव विकार-आत्मा के 534
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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