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विकारग्रस्त होने में, अजीव-पुद्गल का विकार भी कारण बना। वह कर्म पुद्गल है। कार्मण वर्गणा से बना है। उस शुद्ध पुदगल को मेरे विकार का निमित्त मिला। वह विकारग्रस्त हो, पुद्गल कर्म बना। उस विकारी पुद्गल कर्म के उदय में दुख पहुंचाने वाले का निमित्त आया, वह भी पुद्गल (अजीव) मानें। पुद्गल के विकार से आत्मा भी विकारी हुआ। आत्मा के विकारी भाव से वह पुद्गल भी विकारी हुआ।
विकार भाव, पर-भाव है। पर-पदार्थ के निमित्त से होता है। मैं निमित्त के अधीन हो, रागादि विकार भाव करता हूं। वह भाव करने वाला भी मैं ही हूं। अतः मैं क्रोधादि भाव कर्म का कर्त्ता कहलाता हूं। उसी पर-पदार्थ में कर्तृत्व बुद्धि से मैं कर्म का आश्रव करता हूं। भगवान् महावीर कर्म को पुद्गल मानते हैं। लोक में कार्मण वर्गणा के पुद्गल भरे हैं। मेरे क्रोधादि भाव करते ही, वे आकर्षित होते हैं, आते हैं, फिर मेरे कुछ भी किए बिना, वे अपनी सहज, स्व-शक्ति से, मेरे (विकार) भावानुसार ज्ञानावरण आदि सात-आठ कर्मरूप परिणमित होते हैं, विभाजित होते हैं और मेरे से जुड़ जाते हैं। मैं (अर्थात् आत्मा) जब भाव करता हूं, तब भावाश्रव। उस भाव से, वे कर्म जब आ रहे होते हैं, आते हैं, तब द्रव्याश्रव। जब मेरे साथ एकमेक जैसे हो जाते हैं तब बंध कहलाता है। आश्रव से ही बंध होता है। आश्रव में मेरे विकारी भाव मूल हैं। जिस तरतमता, श्रेणी, गाढ़ता, मंदता के भाव होंगे, कर्मों का आश्रव उसी अनुसार होगा।
'करमचंद' का लेखा पक्का है। कार्मण वर्गणा नामक पुद्गल में एक नैसर्गिक, स्वाभाविक, सहज शक्ति है कि वह मेरे क्रोधादि विकार से आकर्षित होता है, अपनी ही शक्ति से 7-8 कर्मरूप बनता है। आकर्षित होने संबंधी दृष्टांत बंध-तत्व में दिया-चुंबक और लोहे के कण। आकर 7-8 कर्म कैसे बनते हैं? मां के पेट में रहकर दोनों को जोड़ने वाली, नाभी से जुड़ी, नाड़ी से भोजन से बना रस पिया। उससे, फिर बाहर निकल दुग्धपान, स्तनपान किया, रोटी-सब्जी-दाल आदि उससे शरीर बना, बढ़ा, हृष्ट-पुष्ट, बलवान बना। शरीर में एक क्विटल बोझा सिर या कंधे पर उठा लें, ऐसी मजबूत हड्डी, मांस, मज्जा, रक्त, विभिन्न अंग, अवयव, सात खरब तो भेषज में कोशिकाएं बनी, पूरे शरीर में लाखों-लाख कोशिकाएं बनती-बिगड़ती-पुनः बनती हैं। मल और मूत्र भी बनता है। अन्तिम आठवां-वीर्य भी बनता है। क्या उस रस, दुग्ध, रोटी, दाल, सब्जी में ये कहीं आपको दिखाई देते हैं? नहीं। कैसे बनते हैं, निरन्तर, जब तक जीव का शरीर से संयोग है, न्यूनाधिक बनते ही रहते हैं। इन सबके बनने की सहज-स्वाभाविक शक्ति गर्भ में मिले रस,
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