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अर्थात् शुद्धात्मा, मात्र ज्ञाता - द्रष्टा-स्वरूपी, ऐसी चर्या, ऐसी ही स्वरूप-रमणता हो जाए, वह उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है।
परिग्रह पाप है - परिग्रह, धन-वैभव, ऐश्वर्य, ऋद्धि-सिद्धि-सम्पन्नता, भंडार भरने हेतु हिंसा, झूठ, चोरी, छल, प्रपंच, कपट, मायाचारी, दुहरे लेखे, ऊपर-ही-ऊपर सौदे करने रूप आरम्भ-समारंभ से जुड़ता है। यह परिग्रह पाप है। उसमें ममता-मूर्च्छा ही मूलतः पाप है। कोई कहे कि, परिग्रह तो है पर मूर्च्छा मेरी उसमें नहीं है तब उससे पूछें कि फिर इतना परिग्रह क्यों जोड़ा, निरंतर बढ़ाते जा रहे हो, तृष्णातुर हो, मृग जैसे संसार में दौड़ते- हांफते-दम क्यों तोड़ रहे हो? क्या एक परमाणु भी मेरा हो सकता है? क्या ? सोचा कभी इतनी आपाधापी, छीना-झपटी, अगड़े-पिछड़े, धनिक-निर्धन, धनी - सत्तावान - निर्धन देशों के बीच क्लेश, कलह, संघर्ष, युद्ध-महायुद्ध - नरसंहार इस परिग्रह महापाप के कारण हैं। प्राकृतिक सम्पदा पर मेरा, मेरे समूह का अधिक-से-अधिक स्वामित्व-आधिपत्य हो जाए, उसका दोहन, अति दोहन कर मैं, मेरा परिवार, मेरा समूह खूब सुख भोगे, यह महापरिग्रह का महापाप सीधे नरक गति में, फिर तिर्यंच पंचेन्द्रिय, फिर वैसा ही ऐसे चतुर्गति रूप अनन्त जन्म-मरण का अनन्त दुख देने वाला है। अतः महावीर स्वयं सर्व परिवार, धन वैभव, राज वैभव, सुख का त्याग कर संयम लेते हैं। उससे पूर्व उसी प्रजा से लूट-लूटकर वसूली कर एकत्र राजकोष भी एक वर्ष तक निरन्तर पुनः प्रजा को लुटाकर लौटाकर पूर्ण अपरिग्रह, नग्न दिगम्बर, अकिंचन्य (अत्यन्त गरीब) महाभिक्षु हो जाते हैं। कर पात्री, एक बार रूखासूखा वह भी साढ़े बारह वर्ष में मात्र 349 दिन आहार करने वाले विश्व में ऐसे कोई धर्मवेत्ता- दार्शनिक नहीं मिल पाते। तब वे अपरिग्रह का उपदेश देते हैं। उनके पचास हजार अपरिग्रही संयमी, संयम साधक होते हैं। लाखों परिग्रह सीमित करते हैं, यह अपरिग्रह का सिद्धान्त विश्व को अनुपम - प्रेरक भेंट है।
राग भी पाप है - शरीर को साता, सुख पहुंचाने वाले, इन्द्रिय-विषयों के सुख की पूर्ति में सहायक-साधक व्यक्तियों के प्रति, स्नेह-अनुराग, वात्सल्य, प्रीति, प्रेम, आदर-सम्मान सेवाभाव होता है, यह राग या प्रीति का बंधन राग पाप है। वह राग स्पर्शेन्द्रिय भोग में सहायक के प्रति रति, रति क्रीड़ा बन जाता है। महापाप माना गया है।
द्वेष पाप है - उक्त के विपरीत व्यक्ति मिलें तो रागादि का विलोम द्वेष होता है। वह शत्रुसम लगता है, चाहे सगा भाई, मां-बाप, पति या पत्नी ही क्यों न हो।
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