________________
सत्य का पारमार्थिक स्वरूप-सत्य को सत्य और असत्य को सत्य कहना-बोलना यह सत्य धर्म है। इससे उल्टा-असत्य या झूठ पाप है। सत्य और असत्य-मिश्र वचन भी पाप है। सत्य और व्यवहार-सत्य-वचन बोलो। मूल में-सत्प आत्मा है, सत्-स्वरूप जिसने जान-देख-अनुभव कर लिया, ऐसे सत्गुरु, सद्गुरु सत्य है, सत्स्वरूप आत्मा को पूर्णतः पा चुके-शुद्ध कर चुके वे परमात्मा, ये तीन सत्य हैं। शेष सब असद्रूप हैं। यह शरीर, उससे जुड़े परिजन, धन-वैभव आदि असद-रूप हैं, पुदगल की पर्याय है, माया है, छलावा है, स्वप्न है ऐसा जानकर, इन सबसे पूर्णतः पृथक त्रिकालसत्य स्वात्मा को जानना-देखना-अनुभव करना यह परमार्थ सत्य, उत्तम सत्य धर्म है।
चोरी-दूसरे के अधिकार-नियंत्रण-आधिपत्य की वस्तु उसकी अनुमति के बिना अपनी बना लेने के लिए उठाना-हटाना-यह चोरी का पाप है। भारतीय किसान का एक आम सिद्धान्त, कूट-कूटकर उसमें भरा है-जिसका कमाया (उपजाया) वह खाय। दो किसानों के खेत पास-पास हैं। बीच में कोई बाड़ है ही नहीं। एक की फसल कुछ कमजोर है, दूसरे की बढ़िया है। वह दूसरे की फसल पर ललचाई-ईर्ष्यालु दृष्टि भी नहीं करता, उसके परिश्रम-सह-भाग्य की सराहना करता है। एक अनपढ़-पिछड़ा कहा जाने वाला किसान-मजदूर है, आधुनिक पढ़े-लिखे-उच्चासीन-ऐश्वर्यशाली, उनके सामने कहीं नहीं टिकते, यह महावीर का अचौर्य धर्म है। इसका गहनतम स्वरूप है-एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का अधिपति-स्वामी नहीं हो सकता। मैं (आत्मद्रव्य) पुद्गल (दूसरे द्रव्य) के एक परमाणु पर भी स्वामित्व, आधिपत्य नहीं कर सकता, ग्रहण नहीं कर सकता। उसे अपना बना लेने का भाव-मात्र चोरी है।
अब्रह्म या मैथुन सेवन पाप है। पारिवारिक-सामाजिक-राजनैतिक मापदंड में एक पति-एक पत्नी, एक-दूसरे में संतुष्ट रहते, संयमित मैथुन सेवी भी प्रशंसनीय-अनुमत है, मान्य है, अपराध नहीं, परन्तु आध्यात्म में पूर्ण ब्रह्मचर्य को धर्म और पति-पत्नी के मैथुन-सेवन को भी पाप कहा है। महावीर कहते हैं उस महापाप से भी बचो। फिर सप्त-कुव्यसन में वर्णित पर-स्त्री, पर-पुरुष गमन, बिना अनुमति धन-पद बल से पर-स्त्री (कन्या) से गमन तो भयंकरतम (कुव्यसन) महापाप कहा है। पति-पत्नी भी संयमित-परिमित करते-करते ब्रह्मचर्य अपनाएं, पूर्ण ब्रह्मचर्य तीन करण-तीन योग से, यह महावीर के धर्म-दर्शन में एक आदर्श है। लक्ष्य है। ऐसा ब्रह्मचर्य अक्षयपददाता, मोक्ष प्रदाता, तपों में सर्वोत्तम तप है। ब्रह्म
50