________________
अनुकंपा (दया, करूणा, अहिंसा) करता हूं। उन्हें दुख-दैन्यादि नहीं देता, उनकी हिंसा-विराधना नहीं करता हूं तो यह शुभ कार्य, मेरे शुभ भावों से होता है। कार्य, प्रवृत्ति, क्रिया (सेवा-सुश्रुषा) मन, वचन, काया (इन्द्रियों) से होती है। उन्हें मेरी प्रवृत्ति, क्रिया, मनोभावों-मंगल भाव, मंगल मनीषा (जैसे उनका कल्याण हो, उनका मंगल हो, उनका उत्तम हो, वे सुखी हों) करने से पुण्य होता है। शुभ से पुण्य। अशुभ से पाप। उन्हें सुख दिया (दुखी नहीं किया) मुझे भी (शरीर) सुख मिलेगा, दुख नहीं मिलेगा। दुख दिया मुझे भी दुख मिलेगा। वह सुख-दुख देने वाला कभी वही जीव आ सकता है। उसके स्थान पर उन असंख्य-अनंत जीवों को मैं दुखी करता हूं, उनकी हिंसा-विराधना करता हूं तो कोई भी अन्य जीव मुझे दुखी करने आ जाएगा। "सुख दिया सुख होत है, दुख दिया दुख होत।"
पाप को पाप न मानें, बिना पश्चाताप जीवन का अंत, अब कर्म निकाचित है : महावीर का दृष्टांत-भगवान् महावीर ने पूर्व के त्रिपृष्ट-वासुदेव के भव में नाच-गाने बंद करवा देना, मुझे नींद आ जाए तो, अंगरक्षक ने स्वयं भी उसका मजा लेने हेतु चालू रहने दिया। नींद खुलते ही वासुदेव-तीन खंडों के अधिपति-राजा आगबबूला हो गए, सुनता नहीं है, मैं राजा, मेरे आदेश का पालन नहीं किया, दुष्ट ने। अरे, संतरी सीसा गरम करके इस बहरे के कान में भर दो। वह तड़फते-तड़फते दम तोड़ देता है। राजा उसी समय मान में चूर, क्रोध में, राजापने के अहंकार में, एक व्यक्ति को मरता-तड़फता देख भी 'मैंने ठीक किया' पाप को पाप नहीं माना, घोर, गाढ़, निकाचित (जैसा बांधा वैसा उदय में आएगा ही, फल देगा ही, ऐसा) कर्म बांधा। जब वे वर्धमान राजकुमार बने, फिर महामुनि बन, जंगल में ध्यानमग्न, तप में लीन खड़े थे। वहीं अंगरक्षक, आज ग्वाले के रूप में, बैलों की रखवाली के आदेश को नहीं सुनने वाले 'बहरे' महावीर महामुनि के कान में कीलें ठोंक रहा है। वही व्यक्ति भी आ सकता है, कोई भी फल देगा ही। कर्म-फल देने वाला, लेखा रखने वाला, अन्य कोई ईश्वर नहीं, कोई देवी-देवता नहीं होते। चलते-चलते छोटे से पत्थर से ठोकर लगी, गिर पड़ा, हड्डी टूट गई, या मृत्यु हो गई कर्म तो (असाता वेदनीय का स्वयं बांधा था) पत्थर निमित्त बना असाता, दुख, रोग आ गया। आयुष्य कर्म स्वयं पूर्व भव में मैंने ही बांधा था, पत्थर (या अन्य किसी भी कारण) पूरा हो गया।
दूसरे जीवों को सुख उपजाने से पुण्य| जो धन, शक्ति, समय आप, अपने माने जाने वाले शरीर या इन्द्रिय सुख में लगा रहे हैं, मोहवश मोही-रागी परिजनों
=42