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________________ पशु-पक्षी (तिर्यंच) में अधिक होती है। मुझे कोई हानि न पहुंचा दे, मेरी आजीविका न छिन जाए, अकस्मात कुछ घटना-दुर्घटना न हो जाए, कोई रोग, शोक, बाधा, प्रतिकूलता न आ जाए, अगले भव में मेरा पता नहीं, क्या होगा, कहीं मैं मर न जाऊं, ऐसा भय लगना भयसंज्ञा है। भिन्न-भिन्न गतियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की संज्ञाएं होती हैं। नरक के नारकीयों में सर्वाधिक भय-संज्ञा है। भिन्न लिंगी के साथ मैथुन-सेवन की अभिलाषा, कामना, वासना, भाव मैथुन संज्ञा है। इन्द्रियों में स्पर्शेन्द्रिय का भोग कर्म-बंध में विशिष्ट भूमिका वाला है। मनुष्य गति में सर्वाधिक है। इन्द्रिय-विषयों की पूर्ति-अहंपूर्ति हेतु चल-अचल सम्पदा को एकत्र करना, सहेजना, संरक्षा करना आदि परिग्रह संज्ञा है। देवगति में सर्वाधिक होती है। यदि मनुष्य गति में, पूर्व के पुण्य-पुण्य के ढेर के कारण आ गए और इन चारों संज्ञाओं में ही मनुष्य भव व्यतीत हो गया तो पशुवत जीवन जीकर, पशु बनना पड़ेगा। संज्ञा की तीव्रता-मंदता से कर्म-बंध है। __प्रमाद से बंध-आलस्य, तंद्रा, उनिंदी, निद्रा, कुंभकर्णी निद्रा, घोड़े बेचकर सोना, प्रमाद है, महाप्रमाद है। इन्द्रियां या शरीर विश्राम लेता है। आत्मा मन के माध्यम से नींद में भी असंख्य विकारी भावों में जाकर कर्म बंध करता है। गरिष्ठ, दुष्पाच्य आहार तनाव, चिंता, परेशानियों से निद्रा में भी कर्म बंध होता है। ऐसे बंध के विविध कारण बताए। बंध तत्व का स्वरूप पूरा हुआ मानें। (4) पुण्य तत्व-अन्न, पान, लयन, शयन, वस्त्र-पात्र, मन, वचन, काय और नमस्कार, कुल नौ पुण्य तत्व के भेद हैं। जीवों के चार से लेकर दस द्रव्य प्राण होते हैं। कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शेन्द्रिय बल प्राण (पांच), मन-बल, वचन-बल, काय-बल, श्वासोच्छवास (सांस लेना-छोड़ना) और आयुष्य बल-प्राण। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, इन पांच के एक इन्द्रिय है, स्पर्शेन्द्रिय बल प्राण, काय-बल प्राण, श्वासोच्छवास बल-प्राण और आयुष्य बल प्राण-कुल चार होते हैं। रसना (जिव्हा) बढ़ी तो रसनेन्द्रिय और वचन बल (चाहे न्यूनतम हो)। छः प्राण हो गए। घ्राणेन्द्रय मिली, तीन इन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय मिली चार इन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय बढ़ी पांचों इन्द्रियां हो गई। कुल नौ प्राण हो गए। मन मिला (सन्नी या संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच) दस द्रव्य प्राण हो गए। देव, नारकी, मनुष्य-दस प्राण वाले हैं। दया, अनुकंपा, करूणा से पुण्य-बंध-मानें, मैं ऐसे प्राणधारियों (प्राणियों, जीवों) के प्राणों की रक्षा करता हूं, उनको सुख उपजाता हूं, सुखी करता हूं, उन पर 414
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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