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गाढ़, तीव्र, भारी, दीर्घकाल तक दुखदायी होगा, मंद हो तो बंध मंद होगा, कम काल का होगा । इन्द्रिय विषयों की रति-अरति के स्थान पर विरति में चले जाएं तो ध होगा । इन्द्रिय विषयों के सेवन करते भी यदि निर्लिप्त, नीरस, निस्पृह, अभोगी, उदासीन, अनासक्त, अगृद्ध रहे तो बंध न्यूनतम होगा, छूट जाएगा ।
कषाय से बंध- इसी कारण से कषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ होगा। इन्द्रिय-विषयों की पूर्ति, अहं पूर्ति के लिए धन-पद-प्रतिष्ठा चाहिए। उसे अर्जित करने हेतु लोभ (तृष्णा, इच्छा, कामना, वासना, वांछा, आकांक्षा, महत्वाकांक्षा) की
पूर्ति में छल, प्रपंच, कपट, मायाचारी करता है। उससे
मान-सम्मान-प्रतिष्ठा-पूछ-इज्जत बढ़ जाती है। उस पर कोई चोट करें, प्रहार करें तो क्रोध आता है। आवेश, क्रोधावेश, क्रोधावेग, रोष, गुस्सा, क्षोभ, क्षुब्ध, क्रुद्ध होता है। इस चांडाल चौकड़ी से बंध होता है। तीव्रता अधिक है तो भयंकर बंध होता है। आत्मा के गुणों में हानि होती है।
विकथा से कर्मबंध-अपने पैतृक कुल, मातृ-कुल, शरीर बल, बुद्धि बल, रूप-लावण्य-सौंदर्य, बल-सौष्टव, धन-पद-प्रतिष्ठा-ऐश्वर्य (मात्र शब्द रूप, पांडित्य रूप) ज्ञान (थोथा ज्ञान ), अज्ञान - तप पर घमण्ड करना, मान कषाय है। यह कर्म-बंध है। स्त्री के रूप लावण्य, हाव-भाव, व्यंग-विलास, वाणी, मनोहारी अंग-प्रत्यंग की कथा या पुरुषों के बल सौष्टव आदि की कथा करना, भोजन - व्यंजनों की बातें करना, कैसे बनता है, खाने में कैसा स्वादिष्ट है, मजा आता है ऐसी कथा करना, अड़ोस-पड़ोस, संघ-समाज, गांव, नगर, राज्य में क्या-क्या बातें हो रही हैं, देश-विदेश में, राजनीति में, राजनेताओं के बीच क्या उठापटक हो रही है ऐसी कथा-वार्ता, आत्मकथा के विपरीत हैं। विकथा बंध का कारण है। इनमें जितना रस रुचि लेते हैं, सुनने-सुनाने-पढ़ने-देखने में समय-शक्ति बुद्धि लगाते हैं, उतना ही विकार उत्पन्न होता है। आत्मा, कर्म, कर्मफल से चतुर्गतिरूप भवभ्रमण, कर्म के रोकने, नष्ट करने, आत्मानंद में लीन होने, आत्मिक अपूर्व आनन्द का आस्वाद लेने, कर्म-मुक्ति-मोक्ष में आत्म कथा में बाधा पड़ती है। अमूल्य मनुष्य जन्म और वीतराग वाणी श्रवण का आत्मानंद में, आत्मामृत में सराबोर होने से वंचित होते हैं, स्वर्णिम अवसर खो जाता है। उल्टे कर्म-बंध करके अधोगति ( नरक-तिर्यंच) में जा दुखी होना पड़ता है। यह कर्म-बंध
है।
संज्ञाओं से बंध- खूब, खूब बढ़िया खाने-पीने का भाव आहार संज्ञा है।
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