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________________ स्व-संचालित है। वैज्ञानिक मानते हैं कि एक अणु की नाभिकीय होती है। उसके चारों ओर इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन, प्रोटॉन आदि स्वतः निरन्तर संचरण करते रहते हैं। अनन्त परमाणुओं में यह संचरण करवाने वाला कोई ईश्वर कैसे हो सकता है। वेदान्ती मानते हैं कि निरंजन, निराकार, निराकुल, एक परम विशुद्ध परमात्मा है। उस निरंजन को इस सृष्टि को रचकर रंजन, मनोरंजन करने की इच्छा कैसे होगी? किसी को सुख, किसी को दुख, प्रसन्न हो जाए वह तो स्वर्ग, रुष्ट हो जाए तो नरक में भेज दे, तब तो इतनी जाल-जंजाल-प्रपंच पालने वाला वह एक सामान्य मनुष्य हुआ। एक गृहस्थी का प्रपंच भी दुखदायी है तो अनन्त जीवों के प्रपंच को लेकर दुखी होने वाला ईश्वर, परम सुखी, निराकुल कैसे हो सकता है? नहीं है। महावीर आस्तिक हैं-वेदों में, ईश्वर में, आत्मा के अस्तित्व में विश्वास रखने वाला आस्तिक अन्यथा नास्तिक (न + अस्ति) माना, वेदान्तियों ने। महावीर ज्ञान के सागर रूप आत्मा और परम विशुद्ध हो जाने वाली उसी आत्मा, परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं, मानते हैं, पूरे आस्तिक धर्म को मानने वाले हैं। आत्मा ही परमात्मा-ऐसा उद्घोष करने वाले, आत्मा की ऐसी परम शक्ति बताने वाले, जगाने वाले विश्व में एकमात्र दार्शनिक, धर्मवेत्ता महावीर हैं। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा हो जाने की शक्ति है। वह उसी के अज्ञान, मिथ्यात्व और मिथ्या-मोह आदि से दबी पड़ी है अतः वह संसार में, चारों गतियों में परिभ्रमण करके जन्म-मरण से स्वयं दुखी है। ज्ञानी की वाणी सुनकर चेत जाए तो सर्व विकारी भावों से रहित हो, सर्व कर्मों से रहित हो, शरीरादि से परे शुद्ध परमात्मा, सिद्धात्मा हो जाता है। उसका फिर चतुर्गतिभ्रमण-उसका दुख मिट जाता है। सदा शाश्वत आत्मिक आनंद में मग्न रहते, उसे पुनः जन्म नहीं लेना, कर्म नहीं तो शरीर नहीं, जन्म-मरण नहीं। महावीर अवतारवाद नहीं मानते-ईश्वर को सृष्टि के भले लोगों का दुख मिटाने, दुष्टों का दमन करना, राक्षसों को मारने हेतु पुनः जन्म लेने, युद्ध-महायुद्ध कर करके संहार करने के महापाप, किसी पर प्रसन्न किसी से रुष्ट हो दमन करने की आवश्यकता नहीं है। अत्याचार-अनाचार-अराजकता आदि फैलने पर मनुष्यों में से कोई सुव्यवस्था, शांति स्थापना हेतु पुरुषार्थ करता है तो मनुष्यों के लिए वह महामानव महान् आत्मा अवतारी पुरुष, फिर परमात्मा बन जाता है। कर्मानुसार सुख-दुख-ईश्वरवादियों में कुछ ये भी मानते हैं कि ईश्वर भी जीवों को सुख-दुख उनके कर्मानुसार देता है। महावीर कहते हैं-अनन्त जीव हैं, 1164
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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