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________________ एक ही जीव के एक-एक पल में, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ भाव होते हैं, ऐसी कोई शक्ति नहीं हो सकती कि इतना ब्यौरा रखकर न्याय कर सुख-दुख दे। वस्तुतः जीवों को सुख-दुख देने वाला कोई ईश्वर नहीं, कोई देवी-देवता नहीं, स्वयं उसके पूर्वोपार्जित कर्म ही कारण है। उसका फल देने वाला कोई भी व्यक्ति आ जाएगा। प्रकृति निमित बने, ठोकर खाकर हड्डी टूटी-दुख हुआ, मर गया, क्या पत्थर ईश्वर है? क्या उसे किसी ईश्वर ने रखा-रखवाया? नहीं, सब स्व-संचालित है। (2) सांख्य दर्शन-द्रव्य की ध्रुवता मानी पर उत्पाद-व्यय नहीं आत्मा नित्य है, ध्रुव, शाश्वत है, सदाकाल एक जैसा रहने वाला आत्मा, सदाकाल शुद्ध, निर्मल, निर्विकारी रहता है। उस शुद्ध आत्मा में विकार, अशुद्धि नहीं होती। अशुद्धि, विकार प्रकृति में होती है। पच्चीस तत्व हैं। पांच महाभूत, पांच इन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच तन्मात्रा, चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार और पच्चीसवां पुरुष (आत्मा) है। विकार सब इन शेष 24 में होते हैं। पुरुष (आत्मा) तो सदा निर्मल निर्विकारी ही रहता है। विकार उसका स्वभाव या गुण नहीं है। ऐसे गीतावादी, सांख्यवादी होते हैं। द्रव्य के स्वरूप-विवेचन में ऊपर आया-द्रव्य ध्रुव है। आत्मा को ध्रुव (अजन्मा) तो माना पर उसमें परिणमन, उत्पाद-व्यय को नहीं माना। वह प्रकृति में माना, आत्मा अछूता है। महावीर कहते हैं, हे सांख्यमती, आप सत्य कहते हैं, आत्मा का स्वभाव तो निराकुल, निर्विकार, शुद्ध ही है परन्तु यह भी सत्य है कि क्रोध आदि विकार भाव भी आत्मा के ही हैं। जड़ प्रकृति में क्रोध कैसे हो सकता है? संसारी अवस्था में ये चौबीस आत्मा से जुड़े हुए हैं, इन संयोगियों के निमित्त कारण से या इनसे विकार भी आत्मा ही करता है। जिस क्षण उसे ज्ञानी की वाणी से पक्का हो जाए कि मेरा स्वरूप निर्विकारी, निर्मल, शुद्ध है, विकार मेरा स्वभाव नहीं, फिर शरीरादि पर-द्रव्य, पर-पदार्थ के कारण, कर्मरूप-पर-पदार्थ के फल में विकारग्रस्त हो जाता हूं वह मेरा नहीं, पर-भाव है, वहीं उससे परे हट स्वभाव, अपने सहज भाव, ज्ञाता-द्रष्टाभाव में आ जाता है, उसी में निरन्तर टिक जाए तो परम शुद्ध हो, परमात्मा बन जाता है। त्रिपदी में, सांख्यमती द्रव्य की ध्रुवता मानते हैं परन्तु उसके ज्ञानादि गुणों में कोई उत्पाद-व्यय नहीं मानते। कभी ज्ञान गुण, अज्ञान में परिणमन करता है, श्रद्धा गुण शरीरादि मेरे हैं ऐसी श्रद्धा, विपरीत श्रद्धा करवाता है। चारित्र गुण मिथ्या 117
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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