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________________ है। अरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा के विशिष्ट अनन्त आत्मिक गुण-स्मरण स्तुति हेतु लोगस्स का पाठ है। अरिहंत और तीर्थंकर परमात्मा और अब वे सिद्ध हो गए, उन सिद्धों के अनन्त आत्मिक गुण स्मरण-गुणस्तुति के लिए नमोत्थुणं (शक्रस्तव) का पाठ है। सम्यक्त्व प्राप्ति हेतु तीन तत्वों का श्रद्धान प्रत्येक व्यक्ति जो जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्रतिपादित जिन-धर्म, जैन-धर्म पालने वाले कुल में जन्मा है या आ गया है, उसे मिथ्यात्व का नाशकर सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए तीन तत्वों की अटूट, अखंड, गाढ़, श्रद्धा होनी चाहिए। (1) देव मेरे अरिहंत (2) गुरु मेरे निपँथ और (3) धर्म मेरा केवलिप्ररूपित। (1) देव अरिहंत-अरिहंत परमात्मा के आत्मिक गुणों को, स्वरूप को निग्रंथ गुरु से समझकर पक्की मान्यता, अवधारणा करता है कि ये मेरे परम आराध्य हैं। देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा के अतिरिक्त किसी भी देव, देवी को नहीं मानता, उन्हें वंदनीय, पूजनीय, अर्चनीय नहीं मानता। देवगति है। उसमें देवी-देवताओं का निवास है। उनके अस्तित्व से इंकार नहीं करता परन्तु उनसे कोई कामना-इच्छा-पूर्ति हेतु याचना-प्रार्थना नहीं करता। जीवों के सुख-दुख अपने-अपने पूर्वोपार्जित कर्म से मिलते हैं। उसमें देव-देवी कुछ भी परिवर्तन, आगे-पीछे करने में समर्थ नहीं होते हैं। (2) गुरु मेरे निग्रंथ-जिन्होंने राग-द्वेषादि गांठों को छिन्न-भिन्न कर दिया, वे निर्ग्रथ गुरु हैं। तीर्थंकर महावीर की आज्ञा के अनुसार ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्ष-मार्ग पर तेजी से दौड़ रहे हैं। आत्म ज्ञान-आत्म दर्शन-आत्म समाधि में लीन रहते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन सेवन, परिग्रह, इन पांच पापों को तीन करण-तीन योग से पूर्ण परित्याग कर, पांच महाव्रतों का पालन करते हैं। उसमें अतिचार-दोष नहीं लगाते। असावधानी, भूल से लग जाए तो पश्चाताप-प्रतिक्रमण करते हैं। गमनागम में, बोलने में, आहार लाने में, वस्त्र-पात्रादि को उठाने-रखने में, शरीर से निकलने वाले उच्छिष्ट को परठने में इतनी सावधानी-विवेक रखते हैं कि किसी भी जीव की हिंसा-विराधना न हो जाए, किसी को क्लेश न पहुंचे। मन-वचन-काया पर अंकुश, नियंत्रण रखते, निग्रह करते हैं। मन-वचन-काया की प्रवृत्ति से परे हो, निवृत्त हो, आत्मगुप्त होते हैं। क्रोध-मान-माया-लोभ रूप कषायों को उपशान्त करते हैं। मन, वचन, काया में समता धारण करते हैं। वेदना,
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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