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________________ मारणांतिक वेदना, कष्ट, कोई उपसर्ग आ जाए तो भी विचलित नहीं होते। आत्मध्यान में लीन रहते हैं। समाधारणता करते हैं। निरन्तर स्वाध्याय-ध्यान में लीन रहते हैं। संसार के प्रपंचों-जंजालों से पूर्णतः परे रहते हैं। चतुर्गतिरूप संसार-सागर से स्वयं भी तिरते हैं और अन्य साधकों को भी वही उपाय बताते हैं, वे भी तिर जाएं। निपँथ गुरु में आचार्य भगवंतों, उपाध्याय भगवंतों, साधु-साध्वी भगवंतों, तीनों का समावेश हो जाता है। संसार-सागर से पार उतर जाने की तीव्र उत्कंठा वाला, मुमुक्षु, आत्म-तत्व समझने-पा जाने का जिज्ञासु ऐसे सब निग्रंथ गुरुओं को, अपना गुरु मानता है। जिससे आत्मावबोध का विशिष्ट आत्मलाभ हुआ, उनका विशिष्ट उपकार मानता है। परन्तु ऐसे निपँथ दशा, साधुता, मुनित्व जिन्हें प्राप्त हुई, सभी को परम वंदनीय-पूजनीय-अर्चनीय मानता है। ऐसे निपँथ गुरुओं के अतिरिक्त किसी को गुरु नहीं मानता। भगवान् महावीर के धर्म में, आचार-मर्यादाओं-बाह्य व्यवस्थाओं की दृष्टि से मत, पंथ, गच्छ, सम्प्रदायें हैं। मुमुक्षु साधक यह मानता है कि चाहे वे संयामी किसी भी मत, पंथ, गच्छ, आग्नाय, संप्रदाय में हों, साधुता के गुणों को, मुनित्व को नमस्कार है-वंदना है। सभी निपँथ गुरु मेरे गुरु हैं। (3) धर्म मेरा केवलिप्ररूपित-केवल ज्ञान-केवल दर्शन के धारक तीर्थंकर परमात्मा ने जो मोक्ष का मार्ग प्ररूपित किया, वह है आत्मा की शुद्धता प्रकट हो जाना। जिससे समस्त रागादि विकार मिट जाएं, मेरा निर्विकारी स्वरूप प्रकट हो जाए, वीतरागता प्रकट हो जाए, परम वीतरागी मैं भी हो जाऊं, ऐसा धर्म प्रतिपादित किया। राग आदि समस्त पाप, विकारी भाव मन्द होते-होते समाप्त हो जाएं, वही सत्य धर्म है। साधक यह मानता है कि देव मेरे अरिहंत परमवीतरागी हैं, गुरु मेरे वीतरागी हैं, उनके द्वारा कहा हुआ, प्रतिपादित, प्ररूपित धर्म भी वीतरागता है। रागादि सभी अधर्म हैं, हेय हैं। करने योग्य, आचरने योग्य नहीं हैं। इनमें समस्त जीवों के प्रति दया, करूणा, अनुकम्पा-रूप, अहिंसा, अस्तेय, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का समावेश हो गया। वीतरागता धर्म में क्रोध-मान-माया-लोभ की शान्तता आ गई। इसमें राग-द्वेष-मोह-रति-अरति का शमन कर उन पर विजय आ गई। ऐसा वीतराग धर्म ही मेरा धर्म है। उसी को प्रकट करने का मेरा परम लक्ष्य है। अब मेरा आत्म-पुरुषार्थ उसी लक्ष्य से होगा। ये तत्व, इनका स्वरूप जब निग्रंथ-सदगुरु से समझता है। इन पर पक्की 1104
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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