SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भामाशाह हैं। तुम्हारी यह अनन्य उपासिका भी आज एक कामना से शरण में आयी है । हे सर्वव्यापिन ! तुम्हें कुछ भी अगम्य नहीं, इसी विश्वास पर मैं अपनी मनोकामना अभिव्यक्त करती हूं। ( चारों ओर सशंक दृष्टि से देख कर ) देवते ! मेरी लालसा है कि चित्तौड़ के राणा उदय सिंह अपना समस्त अनुराग मुझे अर्पित कर दें, मेरे संकेत मात्र पर वे अनुचित उचित सब कुछ करने को तत्पर रहें, मेरी इच्छाओं की पूर्ति को वे अपने जीवन का चरम लक्ष्य माने । ( सहसा निकटवर्ती लतागृह से उदय सिंह का आगमन ) उदय सिंह-प्राणेश्वरी ! प्राप्त वस्तु की याचना करने की मूर्खता क्यों कर रही हो ? ( वीरा का मौनावलम्बन ) उदय सिंह-(स्नेहपूर्वक ) प्रिये ! संसार की दृष्टि में चित्तौड़ का राणा स्वयं अपनी दृष्टि में तुम्हारा दास है, उसके प्रेम को सशंक हृदय से मत देखो। विश्वास मानो, मेरी अशेष स्नेहांजलि तुम्हारे चरणों की भेंट है। ___ वीरा-( मंदस्मिति से ) विश्वास कैसे मानू ? मुझे प्रलोभन देने के लिये ही आप यह मिथ्या प्रेम-प्रदर्शन करते हैं। यदि वास्तव में आप मुझे अपने प्रेम का भाजन मानते, तो आपकी रूप-माधुरी मेरे नयनों के लिये दुर्लभ न होती। ____ उदय सिंह-हृदयेश्वरी! तुम्हारा यह आरोप सर्वथा निराधार है। वास्तव में सदा तुम्हारी मोहिनी मूर्ति मेरे नयनों में भूलती रहती है, यही कारण है जो आज भी तुम्हारा अन्वेषण करता हुआ
SR No.009392
Book TitleBhamashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherJain Pustak Bhavan
Publication Year1956
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy