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मंथन
रहते थे। तब युद्ध के समय इन गुप्त खजानों से अतुल सम्पत्ति का बाहर निकाला जाना कैसे सम्भव हो सकता था ? और इसलिये हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब प्रताप के पास पैसा न रहा तब भामाशाह ने देशहित के लिये अपने पास से खुद के उपार्जन किये हुए द्रव्य से भारी सहायता देकर प्रताप का यह अर्थ कष्ट दूर किया है, यही ठीक जंचता है। रही अमर सिंह और जगतसिंह द्वारा होनेवाले खर्चों की बात । वे सब तो चित्तौड़ और उदयपुर के पुनः हस्तगत करने के बाद हुए हैं और उनका उक्त गुप्त खजानों की सम्पत्ति से होना सम्भव है, तब उनके आधार पर भामाशाह की उस सामयिक विपुल सहायता तथा भारी स्वार्थत्याग पर कैसे आपत्ति की जा सकती है ? अतः इस विषय में ओझाजी का कुछ युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता और यही ठीक जंचता है कि भामाशाह के इस अपूर्व त्याग की बदौलत ही उस समय मेवाड़ का उद्धार हुआ था और इसीलिये आज भी भामाशाह मेवाड़ोद्धारक के नाम से प्रसिद्ध हैं । +
श्री ओझाजी की निराधार युक्ति का खंडन करने के लिये श्री हंसजी और श्री गोयलीयजी के उक्त तर्क सर्वथा समर्थ हैं, अतः इस विषय पर अधिक कुछ लिखना पिष्टपेषण ही होगा ।
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भामाशाह की उदारता और स्वामिभक्ति का ही परिणाम है, जो आज हम उनका नाम स्मरण करते हुए भी गोरव का अनुभव करने लगते हैं । केवल जैन ही नहीं, प्रत्येक भारतीय उन्हें अपने पूर्वज के रूप में पाकर धन्य है यही कारण है जहां राणा प्रताप सिंह की वीरता और स्वदेशभक्ति की चर्चा की जाती है वहां भामाशाह के नाम को भी कोई सहृदय नहीं भुला सकता । यदि हम महाराणा प्रतापसिंह को मेवाड़ - मेदिनी रूप सीता का उद्धारक राम माने तो भामाशाह को राम के प्रमुख सहायक 'हनुमान' की संज्ञा सादर दी जा सकती है। मेरे हितैषी साहित्यकार श्री सुमेरुचंद्र जी दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री ने अपने संदेश में महाराणा और त्यागवीर मामा का सम्बन्ध मणिकांचन योग के सदृश मनोहर बतलाया है - जो सर्वथा उपयुक्त है ।
+ राजपूताने के जैन वीर पृ० ९९ ।
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