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मंथन
हैं और न धन का बल ही उनके पास रह गया है। इसलिये धन की पूजा के इस दुर्घट समय में उनकी प्रधानता धन-शक्ति-सम्पन्न उसकी जाति बिरादरी में अन्य लोगों को अखरती है। किन्तु उनके पुण्यश्लोक पूर्वज भोमाशाह के नाम का गौरव ही ढाल बन कर उनकी रक्षा कर रहा है। भामाशाह के वंशजों की परम्परागत प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये सं० १९१२ में तत्सोमयिक उदयपुराधीश महाराणा स्वरूपसिंह को एक आज्ञापत्र निकलवाना पड़ा था। जिसकी नकल इस प्रकार है
___ " श्री रामो जयति" श्री गनेश जी प्रसादात् श्री एकलिंग जी प्रसादात्
भाले का निशान
[ सही ] स्वस्ति श्री उदयपुर शुभस्थाने महाराजाधिराज महाराणा जी श्री सरूप सिंघ जी आदेशात् कावड़या जेचन्द कुनड़ो वीरचन्दकस्य अप्रं थारावड़ा वामा मामी कावड़यो ई राजम्हे साम ध्रमा सुकाम चाकरी करी जीकी मरजाद ठेठ सूप्पा है महाजन की जातम्हे बावनी त्या चौका को जीमण व सींग पूजा होवे पहले तलक थारे होतो होसो अगला नगर सेठ वेणीदास करसो करयो अर वेदर्यापत तलक थारे नहीं करबा दीदो अवारू थारी सालसी दीखी सो नगेकर सेठ पेमचन्द ने हुकम सिंह का प्रधान भारमल्ल, प्रतापसिंह का प्रधान मंत्री भामाशाह और राणा अमरसिंह के समय ३ वर्ष तक भामाशाह ही प्रधान बना रहो। विक्रम सं० १६५६ माघ सुदी ग्यारस ई० सन् १६०० ता० १६ जनवरी को उसको देहान्त हुआ। उसके पीछे महाराणा ने उसके पुत्र जीवाशाह को अपना प्रधान बनाया, उसका देहान्त हो जाने पर महाराणा कर्णसिंह ने उसके पुत्र अक्षयराज को मंत्री नियत किया। इस प्रकार चार पीढ़ियों में स्वामि भक्त भामाशाह के प्रधान पद रहा।
(उदयपुर का इतिहास ) .