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मंथन
स्वारथ आर्य तुम्हारोई है,
तुमरे सम और न या जग कोई ॥ * इस प्रकार एक नहीं, अनेक कवियों ने भामाशाह के उक्त त्याग की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है । वस्तुतः भामाशाह का त्याग इतना गुरु है कि उसकी प्रशंसा में कहे गये उद्गार पर्याप्त नहीं कहे जा सकते। जिस सम्पत्ति के लिये औरंगजेब ने अपने जनक को भी बन्दी बनाया, सहोदर की जीवन-लीला हँसते हँसते समाप्त कर दी: जिस सम्पत्ति के लिये बनवीर ने अपने भतीजे ( मेवाड़ के उत्तराधिकारी ) बालक उदयसिंह की हत्या के लिये अमानवीय प्रयत्न किये जिस सम्पत्ति के लिये स्वार्थी राजाओं ने अपने पिता और भ्राताओं को भी छलपूर्वक यमलोक भेजा; जिस सम्पत्ति के लिये लोमियों ने अपना धर्म, कुल, गौरव और स्वदेश भी विदेशियों के हाथ बेच दिया, वही सम्पत्ति भामाशाह ने मेवाड़-उद्धार के लिये सहर्ष मेवाड़-केसरी महाराणा प्रतापसिंह को समर्पित कर दी। काश ! हम भामाशाह के देवोपम त्याग से शतांश भी शिक्षा ग्रहण कर सकते, तो आज भामाशाह के भारत के सन्त विनोबा भावे को भूदान और सम्पत्ति दान के लिये ग्राम ग्राम की पैदल यात्रा न करनी पड़ती।
भामाशाह के इस आशातीत त्याग का महाराणा और तत्कालीन जनता पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि शताब्दियाँ बीत जाने पर भी उनके नाम पर उनके वंशज सम्मानित हो रहे हैं। इस विषय को स्पष्ट करने के लिये श्री अयोध्या प्रसाद जी गोयलीय की प्रसिद्ध पुस्तक 'राजपूताने के जैन वीर' के पृष्ठ ९४-९६ से एक विस्तृत अंश उद्धत किया जा रहा है, जो इस प्रकार है
मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में भामाशाह के वंशज को पंच पंचायत और अन्य विशेष उपलक्ष्यों में सर्वप्रथम गौरव दिया जाता है। समय के उलटफेर और कालचक्र की महिमा से भामाशाह के वंशज आज मेवाड़ के दीवान पद पर नहीं
* राजपूताने के जैन वीर पृ० ९१ x भामाशाह के घराने में चार पीढ़ियों तक दीवान पद रहा। राणा उदय