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मंथन
को ही सौंपा था, भोजनके समय भी महाराणा स्वयं उपस्थित नहीं हुये थे और युवराज अमरसिंह को ही भेजा था। अपने प्रति महाराणा का यह उपेक्षा भाव मानसिंह को घोर अपमान प्रतीत हुआ। वे निराहार ही उदयपुर से दिल्ली लौट गये। इस अपमान का आघात उनके हृदय पर इतना तीव हुआ कि वे अकबर की विशाल वाहिनी लेकर मेवाड़ को श्मसान बनाने के लिये शीघ्र ही चल पड़े। फल स्वरूप संसार-प्रसिद्ध हल्दीघाटी का महासमर हुया। मेवाड़के समस्त वीरों ने इस समर में योगदान दिया। 'वह ( भामाशाह ) भी प्रसिद्ध हल्दीघाटी की लड़ाई में कुँवर मानसिंह की सेना से लड़ा था।+ यह उल्लेख प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान श्री ओझाजी ने अपने 'उदयपुर राज्यका इतिहास' के अन्तमें किया है। भामाशाह की वीरता और रणचातुरी की पुष्टि करते हुये पं० झाबरमल जी शर्मा ( सम्पादक-दैनिक हिन्दू संसार ) ने लिखा है-'इन घावों में भी भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का महाराणा को खूब अवसर मिला और उससे वे बड़े प्रसन्न हुये ___ भामाशाह को लघु भ्राता ताराचन्द्र भी महाराणा की सेनामें भर्ती हुआ था । इसने भी हल्दीघाटी के युद्ध में भाग लिया और मेवाड़-रक्षा के लिये प्राणों को हथेली पर रख यवन सेना से संग्राम किया। हल्दीघाटी के प्रथम तथा द्वितीय युद्ध में महाराणा की सम्पूर्ण धन जन शक्ति नष्ट हो गयी। उनके दिन अत्यन्त संकट में व्यतीत होने लगे, कहीं से सहायता की आशा न रह गयी। ऐसी विकट स्थिति में उन्हें यवनो का सामना करने के लिये धन की आवश्यकता हुई। अतएष 'महराणा ने चावण्ड में रहते समय भामाशाह को मालवे पर चढ़ाई करने के लिये भेजा x महाराणा का प्रधान भामाशाह कुम्भलमेर की रअय्यत को
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+ श्री. नाहटा जी का निबंध 'भामाशाह का घराना । * राजपूताने के जैन वीर पृ. ९३ + वीरशासन १ दिसम्बर १९५२ पृ. ७ । x नाहटा जी का निबन्ध 'भामाशाह का घराना ।'
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