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मंथन
एकदिन वनान्तः रुच्चैमण्डपाधी धर्मध्याने निदधन् साधु गुणग्रामाभिरामाः श्री देपानगरस्वामी शुद्धतपोधनो भारमल्लेन दृष्टो विधिवद् वन्दितश्च शुद्धधर्मोपदेशामृत पीतं श्रवणाभ्याम् । अति प्रसन्नेन भारमल्लेनाविभृष्टं महोमहान भाग्योदयो मे प्रकटिता यहीदृग्गुणाःगुरवो दृष्टा सर्वर्था मे सेत्स्यन्ति तदा भारमल्लोऽन्ये वहवो नागोरीलंका गणीयाः श्रावकाः जाताः ।+ ।
इन पंक्तियों से भारमल का लुंकामतानुयायी बनना प्रमाणित होता है, साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि राजकीय कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी भारमल्ल के. जीवन में धर्म का एक विशिष्ट स्थान रहा है। ___जब महाराणा उदयसिंह वीरा वेश्या के प्रेमजाल में उलझ अपने कर्त्तव्य को सर्वथा भूल बैठे और अकबर की सेना में सं० १६२४ में महाराणा की असावधानी से लाभ उठा कर चित्तौड़ के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया, तो महाराणा को चित्तौड़ त्याग कर भाग जानेके सिवा अन्य कोई आत्मरक्षा का उपाय न सूझा। कोयर उदयसिंह ने दुर्ग से भगकर गिल्होट नामक स्थान में जा अपने प्राणों की रक्षा की और एक नवीन नगर बसाया, जिसका नाम उदयपुर रखा गया। जिस समय इस नवीन नगर की नवीन व्यवस्था प्रारन्भ हुई, तो महाराणा ने भारमल्ल को अपने प्रधान मंत्री के पद पर प्रतिष्ठित किया; जो मंत्री पद उनकी चार पीढ़ियों तक के लिये पैतृक अधिकार बना।
महाराणा उदय सिंह के उपरान्त जब महाराणा प्रताप सिंह चितौड़ के सिंहासन पर आरूढ़ हुये तब उन्होंने भारमल्ल के पुत्र भामाशाह को अपना प्रधान मंत्री बनाया। यह ( भामाशाह ) महाराणा प्रताप सिंह के शुरू समय से महाराणा अमरसिंह के २॥ तथा तीन वर्ष तक प्रधान रहा।
जिस समय शोलापुर विजय कर लौटते हुये मानसिंह उदयपुर आये और महाराणा प्रतापसिंह के अतिथि बने! उस समय उनका आतिथ्य महाराणा प्रताप सिंह ने स्वयं न कर इसकी व्यवस्था का भार अपने प्रधान मन्त्री भामाशाह
+ वीर शासन १ जनवरी १९५३ पृष्ठ ७ * वीर विनोद पृ. २५१