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भामाशाह
का आरम्भ हो रहा है, पर आज केवल एक गीत सुन कर ही इसका मुहूर्त करूंगा। अतः केतकी ! तुम्हीं अपने मन का सुन्दर-सा गीत गाओ।
( केतकी द्वारा गीतारम्भ ) तुम शरद-शुभेन्दु-ज्योति और मैं चकोरी। तुम स्वतन्त्र पञ्यवाण, मैं निविद्ध गोरी ॥ तुम सधन अशोक और मैं मनोज्ञ छाया । तुम विमुग्ध जीव और मैं विलिप्त माया ।। तुम उरोज युक्त वक्ष, मैं निबद्ध चोली ।
तुम वसन्त-वाद्य मैं मनोज-गीति होली ॥ तुम वधू-ललाट, मैं सुहागविन्दु रोरी ! तुम शरद्-शुभेन्दु-ज्योति और मैं चकोरी। तुम प्रभात के विलास, मैं सराग ऊषा । तुम अनूप रूप, मैं नवीन भव्य भूषा ।। तुम समर-उदास पार्थ, मैं पुनीत गीता । तुम विजय प्रसन्न राम, मैं विमुग्ध सीता ।।
तुम प्रसुप्ति शील वत्स, मैं सुगेय लोरी ।
___तुम शरद् शुभेन्दु ज्योति और मैं चकोरी॥ ताराचन्द्र-( गीत की समाप्ति पर गायिकाओं से ) अब आप सब जा सकती हैं। ( गायिकाओं का गमन ) नैनूराम ! मुझे इस गीत में पूर्ववत् आनन्द नहीं आया, यौवन के साथ स्वर-माधुर्य और चापल्य दोनों ढल चुके हैं।