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भामाशाह
भामाशाह-गुरुदेव ! आपके प्रत्येक शब्द का प्रभाव मेरे हृत्पटल पर विस्तार पाता जा रहा है। अतः मैं भी अपने महाराणा द्वारा प्रशस्त पथ पर चरण बढ़ाने का संकल्प करता हूं।
सन्त ( महाराणा की ओर देख कर ) मेवाड़-नरेश ! आप और आपके. अमात्य के वीर प्रण से मुझे स्वर्गीय आह्लाद का अनुभव हो रहा है।
भामाशाह-क्षमावतार ! क्या मैं आपके इस आह्लाद का कारण जान सकता हूं?
सन्त- क्यों नहीं ? वीतरागी के मनोभाव गोपनीय नहीं होते। मुझे भी इस वीर-प्रसविनी मेवाड़-वसुन्धरा में जन्म लेने का सौभाग्य मिला है, इसी के अन्न जल से मेरे शरीर का प्रत्येक परमाणु पुष्ट हुवा है । आज भी इसी के सुशीतल कोड़ में आत्मतपःपूत साधना कर आत्मिक सुख का अनुभव करता हूं। अतः इसके उद्धार के लिये प्रत्येक संभव प्रयास करना मेरा कर्तव्य है।
प्रतापसिंह-( उत्सुकता से ) क्या जैन सन्त भी युद्ध के पक्षपाती होते हैं ?
सन्त-नहीं ! मेरे उपदेश का यह तात्पर्य नहीं कि आप निरपराध मानवों की हत्या कर शोणित के स्रोत बहायें । शत्रु को व्यर्थ अमानुषिक यातनाएं दें, निर्दोष प्रजा का धन धान्य लूट कर उसके निवासगृहों में आग लगायें। वरन् मैंने आपको कर्तव्य-बोध कराने के लिये. ही देश, धर्म और बन्धुओं की रक्षा के लिये उपदेश दिया है ।
भामाशाह-धन्य है साधुवर आपका नीर-क्षीर विवेक ! अब हम आपके उपदेशानुसार ही आचरण करेंगे।