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भामाशाह
भामाशाह-ज्ञात है दयासागर ! पर ज्ञात होते हुए भी तदनुकूल आचरण करने की क्षमता मेरी आत्मा में नहीं।
सन्त-( शान्ति से ) यह आपकी आत्मिक दुर्बलता है । जब तक आप इस दुर्बलता से अपने हृदय को मुक्त न कर लेंगे, तब तक जयश्री की आराधना सफल नहीं हो सकती। प्रत्येक आत्मा में अनन्त शक्ति है, इस अतन्त शक्ति पर श्रद्धान किये बिना आप देश, धर्म, समाज और अपनी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकते ।
भामाशाह-अकारण बन्धो ! देश, धर्म और समाज का कल्याण आप जैसे त्यागी, निस्पृह और साधनाशील महामानव द्वारा ही सम्भव है, मुझ जैसे पामरों से ऐसे महत्कार्य असाध्य ही हैं। ___ सन्त-बुद्धिमान मन्त्रिन् ! आप पामर नहीं, वीर पुरुष हैं । वास्तव में आपको अभी अपनी ही शक्ति का बोध नहीं। जिस दिन आपको अपनी आत्मा की अचिन्त्य शक्तिका बोध हो जायेगा, उस दिन आप मेवाड़का ही नहीं, अखिल लोकका उद्धार कर सकेंगे। अतः साहस के सूर्य से निराशा की निशा को नष्ट कर कर्मशील बनिये।
( सहसा अश्व पर आरूढ़ महाराणा प्रतापसिंह का आगमन ) प्रतापसिंह- ( अश्व से उतर बन्दना करते हुये ) ज्ञानमूर्ते ! वृक्ष की ओट से आपके पवित्र उपदेशामृतके कुछ कणों का आस्वादन कर अवर्णनीय आह्लाद हुवा। इससे मेरे हृदय में शक्ति, स्फूर्ति और साहस की नयी त्रिवेणी फूटी है। जिसमें निमग्न हो मैं मेवाड़-उद्धार के लिये प्रतिज्ञाबद्ध होता हूं।
(सन्त द्वारा सहज मन्द हास्य )