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भामाशाह
भामाशाह-किन्तु गुरूदेव ! वर्तमान में मेवाड़-मेदिनी शत्रु के अत्याचारों की क्रीडास्थली बनी हुई है । अतः यह निश्चिन्त विहारका समय नहीं, प्राण और धन की सुरक्षा का समय है ।
सन्त-प्राण और धन की सुरक्षाका समय है-मायालिप्त गृहस्थों के लिये; निस्पृह गृह-त्यागियों के लिये नहीं । जो धन-धान्य, बन्धुबान्धव और जीवन का भी मोह त्याग आत्मविहारी बन गया है, वह चाहे जहां कहीं, निश्चिन्ततासे विहार करने के लिये स्वतन्त्र है ।
भामाशाह-सत्य है तपोधनी ! आपके आत्म-धन और सच्चिदानन्दमय प्राणोंको हरण करनेकी क्षमता किसी में नहीं । कारण आपका अस्तित्व संसार में अवश्य है पर संसार का अस्तित्व आपमें नहीं। इसके विपरीत हम जैसे संसारियों के अन्तर में अनन्त संसार अस्तित्व बनाये है। अतः, हमारी निराकुलता का दाह-संस्कार करने के लिये चिन्ता की चिता निरन्तर जलती रहती है ।
सन्त-( भामाशाह की ओर सतेज दृष्टि कर ) भामाशाह ! आज आपके मुख से ये कैसे उद्गार सुनने को मिल रहे हैं ? मेवाड़ के महाराणा के मन्त्री और पवित्र जैनधर्म के अनुयायी होकर आप. इतनी निराशा का अनुभव करें, यह उचित नहीं ।
भामाशाह-क्या करूं? कृपानाथ ! देश, धर्म और अपने आश्रितों की दुर्दशा देखने की क्षमता मेरे नेत्रों में नहीं।
सन्त-पर स्वयं निराशा और चिन्ता के दलदल में फंस कर अन्य का उद्धार असम्भव है । कारण निराशा और चिन्ता उन्नति के वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ियां हैं, क्या आपको यह ज्ञात नहीं ?