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अङ्क ५
दृश्य १४ स्थान-कुम्भलमेर का एक विशाल सरोवर-तट समय-कार्तिक का प्रभात ।
[सरोवरतटपर तरु-पंक्तियाँ, आम्र-वृक्षों पर कोकिलाओं का पंचम आलाप, सरोवर के सुशीतल सलिल में डूबकियां लगाते हुए रंग-बिरंगे विहग, निकट ही हरित् दूर्वादल पर चरते हुए पशु, अरावली पर्वत की श्रेणियों पर चढ़ मेवाड़ का प्राकृतिक सौन्दर्य निहारते हुए नवोदित दिवाकर, सरोवर की जल-तरंगों के साथ केलि करती हुई अरुणाभ रश्मियां, प्रकृति के इन दृश्यों में निमग्न भामाशाह, एक ओर से हस्त में मयूर पिच्छिका तथा कमण्डलु लिये प्रशान्ताकृति जैन सन्त का आगमन]
भामाशाह-(निकट पहुंच कर भक्ति पूर्वक ) नमोऽस्तु शांतिमूर्ते ! सन्त-( स्वाभाविक स्मितिपूर्वक ) धर्मवृद्धिस्तु वत्स !
भामाशाह-( तेजस्वी मुख के सामने देख सविनय ) विभो ! मैं यह जानने को उत्सुक हूं कि आपके पुण्य पदार्पण से कौन-सा नगर पवित्र होने वाला है ? __ सन्त-( स्वाभाविक रीति से ) श्रावक! मैं यों ही भ्रमण करता कुम्भलमेर की ओर जा रहा हूं।
* यह दृश्य 'मेवाड़नो पुनरुद्धार' नामक गुजराती पुस्तक के चतुर्थ प्रकरण 'कर्त्तव्यनी दिशा' के आधार पर लिखा गया है
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