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भामाशाह
मनोरमा- इसमें खेद की क्या आवश्यकता ? मातृभूमि के समक्ष मैं कोई महत्व नहीं रखती ।
भामाशाह -यह ठीक है, पर जाने किस दुर्भाग्य से तुम्हें मेरे जैसे पुरुष की अर्द्धांगिनी बनना पड़ा है, जो राजनैतिक उलझनों में व्यस्त रहता है, स्वामी -रक्षा के लिये जो युद्ध-स्थली में जाने को तत्पर हो रहा है । हा ! कल से मैं तुम्हारी किसी भी सुख-सुविधा का ध्यान न रख सकूंगा ।
मनोरमा - नाथ ! ऐसा कह कर मुझे लज्जित न करें। जो सुख इन्द्र की इन्द्राणी को भी दुर्लभ है, चक्रवर्ती की पटरानी को भी अलभ्य है, वह आपकी जीवन- सहचरी बन मैंने पाया है । जिसे आप मेरा दुर्भाग्य कहते हैं उसे मैं अपना सौभाग्य समझती हूं ।
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भामाशाह – इसमें सौभाग्य की क्या बात ?
मनोरमा - सौभाग्य न होता, तो आप जैसे कर्मशील और देशभक्त वीर पुरुषकी दासी बनने का अवसर न मिलता । क्या ही अच्छा होता यदि मैं भी युद्ध भूमि में साथ जा आपकी सेवा सुश्रुषा कर सकती ।
भामाशाह – यह सम्भव नहीं है प्रिये ! भयंकर युद्धस्थली तुम जैसी कोमलांगियों के संचरण योग्य नहीं ।
मनोरमा - प्राणेश ! यदि यह सम्भव नहीं, तो मेरी चिन्ता के विचार को हृदय से निकाल रण-यात्रा प्रारम्भ करें ।
भामाशाह – प्रिये ! तुम्हारी इस प्रेरणा और सहानुभूति से मेरा रणोत्साह द्विगुणित हो रहा है, अब मुझे कोई भी बाधा युद्ध भूमि से नहीं हटा सकती । तुम प्रसन्न हृदय से मुझे बिदा दो, तुम्हारी शुभकामनाएं इस संग्राम में मेरे लिये सम्बल बनें ।
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