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भामाशाह
उत्तर लेकर आ रहा हूं। (गमन, क्षणोपरान्त एकाकी पुनरागमन )
अमरसिंह--महाराज ! शिरोवेदना से पीड़ित होनेके कारण उन्होंने आने में असमर्थता प्रकट की है, कृपया भोजन स्वीकार कर हमारा आतिथ्य सफल करें।
मानसिंह फिर आतिथ्य ? क्या उन्माद हो गया है तुम्हें ? जो इसे आतिथ्य कहते हो ? ( ओसन से उठते हुए ) राणा के बिना मुख में प्रास देना दूर, भोजन की थाली की ओर भी मानसिंह नहीं देख सकता।
भामाशाह -महाराज। आपका यह क्रोध अकारण है, महाराणा की शिरोवेदना ही आपकी इच्छापूर्ति में बाधक है । अन्यथा आपको ये शब्द कहने का अवसर न आता।
मानसिंह-(क्रोध से भृकुटियां टेढ़ी कर ) भामाशाह ! यह शिरोवेदना नहीं, मुझे अपमानित करने के लिये शिरोवेदना का मिथ्या अभिनय है । उच्छिष्ट पर पलने वाला श्वान भी इतना अपमान सह भोजन की ओर दृष्टिपात नहीं कर सकता। फिर मेरे शरीर का तो प्रत्येक परमाणु स्वाभिमान से ही निर्मित है। अतः यह उपेक्षा सहना मेरी प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है। पर मैं अन्नदेवता का तिरस्कार नहीं करता और उसे मस्तक पर चढ़ाता हूं। (दो तीन तन्दुल कणों का शिरोवेस्टन में निक्षेपण ) किन्तु प्रताप की शिरोवेदना के प्रति मुझे समवेदना है, अतः इसकी रामबाण औषधि लेने जाता हूं। इस औषधि का नाम सुनते ही प्रताप के शिर से शिरोवेदना का भूत उतर जायेगा। मेवाड़ की मेदिनी अपने ही लालों के मुण्डों की माला पहनेगी। यहां