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________________ [74] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन के लिए लिंग है, इसी से संसारी आत्मा की प्रतीति होती है। इसी प्रकार सांख्य और न्याय दर्शन के अनुसार इन्द्र का अर्थ आत्मा है और उसके लिंग को इन्द्रिय कहते हैं। जिससे आत्मा को ज्ञान होता है, वह साधन रूप है, ज्ञाता रूप नहीं जिनभद्रगणि के अनुसार जीव सब वस्तुओं की उपलब्धि और परिभोग रूप ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है, इसलिए वह इन्द्र है। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन जीव के चिह्न हैं और ये ही इन्द्रियाँ कहलाती हैं। पूज्यपाद के अनुसार 1. इन्द्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है, 'इन्दतीति इन्द्रः' जो आज्ञा और ऐश्वर्यवाला है, वह इन्द्र है। यहाँ इन्द्र शब्द आत्मा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इन्द्र (आत्मा) ज्ञस्वभाव वाला होते हुए भी मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के रहते हुए स्वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है। अतः उसको जो जानने में लिंग (निमित्त) होता है, वह इन्द्र का लिंग इन्द्रिय कहलाती है। 2. जो लीन अर्थात् गूढ पदार्थ का ज्ञान कराता है, उसे लिंग कहते हैं। अतः जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में लिंग अर्थात् कारण है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैसे कि धूम अग्नि का ज्ञान कराने में कारण होता है। अकलंक ने भी तत्त्वार्थराजवार्तिक में ऐसा ही उल्लेख किया है।84 वीरसेनाचार्य के अनुसार जो प्रत्यक्ष में व्यापार करती हैं, उन्हें इन्द्रियां कहते हैं। यहाँ अक्ष का अर्थ इन्द्रिय है। इन्द्रिय के प्रकार प्रज्ञापना सूत्र में इन्द्रिय के पांच प्रकार बताये गये हैं, यथा 1. श्रोत्रेन्द्रिय 2. चक्षुरिन्द्रिय 3. घ्राणेन्द्रिय 4. जिह्वेन्द्रिय और 5. स्पर्शनेन्द्रिय। इसी प्रकार अन्यत्र सभी आगमों और ग्रंथों में इन्द्रिय के पांच भेद ही किये गये हैं। इन्द्रिय की उत्पत्ति नैयायिकों का अभिमत है कि इन्द्रियों का निर्माण उनके विषय बनने योग्य गुण के आधारभूत द्रव्य से होता है जैसेकि शब्द श्रोत्र का विषय है तथा यह आकाश महाभूत का गुण है, अतः श्रोत्र का निर्माण आकाश महाभूत के परमाणु से होता है, इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। जैन दार्शनिक इसका खण्डन कहते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु पृथक्-पृथक् द्रव्य न होकर एक ही द्रव्य पुद्गल हैं तथा जड़ इन्द्रियों का निर्माण पुद्गल परमाणुओं से ही होता है। जैनदर्शन में इन्द्रियाँ पौदुगलिक हैं, इससे सांख्यदर्शन जो इन्द्रिय को अंहकार जन्य मानते हैं, उसका खण्डन हो जाता है।99 इन्द्रिय के पांच प्रकारों का स्वरूप उत्तराध्ययन सूत्र के 32वें अध्ययन की गाथा 35, 22, 49, 61, 75 में क्रम से पांचों इन्द्रियों को परिभाषित किया है, यथा 'सोयस्स सद गहणं वयंति' जो शब्द को ग्रहण करे, वह श्रोत्रेन्द्रिय 81. सांख्यतत्त्वकौमुदी 26, सर्वार्थसिद्धि 1.14, राजवार्तिक 1.14.1 82. इंदो जीव सव्वोवलद्धिभोगपरमसरत्तणओ। सोत्ताइभेयभिंदियमिह तल्लिंगाइभावाओ। -विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2993 83. सर्वार्थसिद्धि, अ. 1, सू. 14 84. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.14, 2.15 85. षट्ख ण्डागम, पु. 1, सू. 1.1.4, पृ. 135 86. कइ णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता? गोयमा! पंच इंदिया पण्णत्ता। तंजहा-सोइंदिए, चक्खिदिए, घाणिंदिए, जिभिदिए, फासिंदिए। - प्रज्ञापना सूत्र, पद 15 87. तर्कभाषा 88. तत्त्वार्थराजवार्तिक, अ. 2. सू. 17.4 89. न्यायकुमुदचन्द्र भाग 1, पृ. 157-158
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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