________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [73] ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान तथा अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये प्रत्यक्ष हैं और शेष स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान परोक्ष हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान कथंचित् प्रत्यक्ष और कथंचित् परोक्ष हैं क्योंकि ये चारों ज्ञान चक्षुदर्शन अथवा अचक्षुदर्शन रूप पदार्थ दर्शन के सद्भाव में ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए स्वरूप का कथन करने वाले द्रव्यानुयोग की दृष्टि से तो ये प्रत्यक्ष हैं और ये इन्द्रिय अथवा मन की सहायता से ही उत्पन्न हुआ करते हैं, अत: करणानुयोग की विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से परोक्ष भी हैं।' अवग्रहादि ज्ञानों में आत्मा के दर्शन गुण का अर्थाकार रूप व्यापार कारण होता है जिससे उन्हें प्रत्यक्ष माना गया है, वही स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्कादि ज्ञानों में आत्मा के दर्शन गुण के अर्थ का अभाव होता है इसलिए धारणा आदि ज्ञान का व्यापार कारण होने से उन्हें परोक्ष माना गया इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने में दोष पूर्वपक्ष - जो ज्ञान इन्द्रियों के व्यापार से उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष है और इन्द्रियों के व्यापार से रहित है, वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष व परोक्ष का यह अविसंवादी लक्षण मानना चाहिए। उत्तरपक्ष - यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि उक्त लक्षण के मानने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियों के निमित्त से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है, तो ऐसा मानने पर आप्त को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि आप्त को इन्द्रिय पूर्वक पदार्थ का ज्ञान नहीं होता। कदाचित् उसके भी इन्द्रिय पूर्वक ही ज्ञान पाया जाता है, तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहती। पूर्वपक्ष - उसके मानस प्रत्यक्ष होता है। उत्तरपक्ष - मन के प्रयत्न से ज्ञान की उत्पत्ति मानने पर सर्वज्ञत्व का अभाव ही होता है। पूर्वपक्ष - आगम से सर्व पदार्थों का ज्ञान हो जायेगा। उत्तरपक्ष - नहीं, क्योंकि सर्वज्ञता प्रत्यक्षज्ञान पूर्वक प्राप्त होती है। पूर्वपक्ष - योगी-प्रत्यक्ष नाम का एक अन्य दिव्यज्ञान है। उत्तरपक्ष - उसमें आपके मत में प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योकि वह इन्द्रियों के निमित्त से नहीं होता है। जिसकी उपलब्धि इन्द्रिय से होती है, वह प्रत्यक्ष है, ऐसा आपके मत में स्वीकार भी किया है। ज्ञान के साधन ___मुख्य रूप से ज्ञान के तीन साधान होते हैं, यथा 1. इन्द्रिय 2. मन और 3. आत्मा। इन्द्रिय ज्ञान के साधन के मुख्य रूप से तीन होते हैं, यथा 1. इन्द्रिय 2. मन और 3. आत्मा। इन्द्रिय और मन परोक्ष ज्ञान के साधन होते हैं, जबकि आत्म-प्रत्यक्ष ज्ञान का साधन होती है। वैसे तो परोक्ष ज्ञान भी आत्मा में ही होता है, इन्द्रिय और मन तो सहकारी कारण मात्र होते हैं। इन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति - संस्कृत में 'इदि परमैश्वर्ये' धातु है। इससे इन्द्रिय शब्द बनता है। 'इन्दति परमैश्वर्यं भुनक्ति इति इन्द्रः' अर्थात् जो परम ऐश्वर्य को भोगता है उसको इन्द्र कहते हैं। मलयगिरि कहते हैं कि आत्मा सभी द्रव्यों की उपलब्धि रूप परम ऐश्वर्य से सम्पन्न है, इसलिए वह इन्द्र है। उसका जो अविनाभावी चिह्न है, वह इन्द्रिय है। इन्द्रिय संसारी आत्मा को पहचानने 76. सरस्वती वरदपुत्र पं. बशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दग्रंथ, खंड 4, पृ. 14 77. बशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दग्रंथ, खंड 4, पृ. 15 78. बशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दग्रंथ, खंड 4, पृ. 18 79. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.12.6-9 80. मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 75