________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [71] मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जिस आत्मा में जानने की शक्ति है, परंतु इंद्रिय आदि उपर्युक्त कारणों की सहायता के बिना वह पदार्थों के ज्ञान में असमर्थ है, अतः उसके ज्ञान में भी इन्द्रियादि प्रधान सहकारी हैं। इस प्रकार अपनी उत्पत्ति में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इंद्रिय और मन आदि की अपेक्षा रखने के कारण पराधीन है, इसीलिये दोनों परोक्ष हैं। जो ज्ञान चक्षु आदि इंद्रिय और मन की अपेक्षा के बिना हो, व्यभिचार से रहित हो एवं सविकल्पक हो वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में प्रत्यक्ष की परिभाषा इस प्रकार दी है –'विशद: प्रत्यक्षं' - विशद अर्थात् स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है अर्थात् जो ज्ञान विशद और सम्यक् अर्थ निर्णय रूप होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। 'अविशदः परोक्षम्' अर्थात् पदार्थ का जो सम्यक् निर्णय अविशद हो अर्थात् जिस ज्ञान में 'इदम्प ' का प्रतिभास न हो वह परोक्ष ज्ञान है।" इस प्रकार सभी जैनाचार्यों ने मन और इन्द्रिय की सहायता के बिना आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में स्वीकार किया है, तथा इनकी सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष माना है। परोक्ष ज्ञान ___ मन और इन्द्रिय की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष ज्ञान कहलाता है। दूसरे शब्दों में द्रव्य इन्द्रिय, द्रव्य मन, द्रव्य श्रुत-श्रवण या द्रव्य श्रुत पठन आदि की सहायता से रूपी या अरूपी, द्रव्य गुण या पर्याय विशेष को जानना-'परोक्ष ज्ञान' है। परोक्ष ज्ञान के दो भेद इस प्रकार हैं - 1. आभिनिबोधिक ज्ञान और 2. श्रुतज्ञान। इन दोनों ज्ञानों से ज्ञेय को साक्षात् नहीं जाना जाता है, इसलिए इन्हें परोक्ष माना है। विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार - वैशेषिकदर्शन के अनुसार अक्ष का अर्थ इन्द्रिय होता है और उनसे (इन्द्रियों से) होने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्ष है, शेष ज्ञान परोक्ष है। भाष्यकार ने इस मत का खण्डन करते हुए कहा है कि इन्द्रियाँ घट के समान अचेतन होती हैं, जिससे वे पदार्थ को नहीं जानती (ज्ञान) हैं। अत: इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। शंका - प्रत्येक प्राणी इन्द्रियों के माध्यम से पदार्थों का साक्षात्कार करता है, जिससे उसे अर्थोपलब्धि होती है, यह अनुभवप्रत्यक्ष होने से प्रसिद्ध ही है, इसलिए इन्द्रियां नहीं जानती हैं, आपका इस प्रकार कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। पुनः भाष्यकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार घर के गवाक्ष (खिड़की) में से देखे गये पदार्थों की स्मृति उस गवाक्ष के हटने या बन्द होने के बाद भी जिसने उन पदार्थों को देखा है, उसमें होती है। उसी प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान की स्मृति आत्मा में इन्द्रियों के नष्टादि होने पर भी होती है। यदि इन्द्रियाँ ही ज्ञाता होती तो उन (इन्द्रियों) के नष्ट होने पर आत्मा को ज्ञान नहीं होना चाहिए, लेकिन होता है। अतः आत्मा ही जानती है, इन्द्रियाँ नहीं। मति और श्रुतज्ञान की परोक्षरूपता इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो आत्मा को ज्ञान होता है, वह परोक्ष है, क्योंकि उसमें संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि हो सकते हैं। जैसे पूर्व उपलब्ध संबंध की स्मृति के कारण उत्पन्न होने वाला अनुमान ज्ञान परोक्ष है, वैसे ही मति और श्रुतज्ञान भी पर अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, इसलिए वे परोक्ष हैं। 70. इंद्रियानिंद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षं। - तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.12.1 71. प्रमाणमीमांसा 1.13, 1.2.1 72. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 97 73. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 90-92 और बृहद्वृत्ति