________________ [70] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अमृतचन्द्रसूरि के वचनानुसार - इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से मुक्त तथा दोषों से रहित पदार्थ का सविकल्पज्ञान प्रत्यक्ष है। गृहीत अथवा अगृहीत पर की प्रधानता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है, वह परोक्ष है। पूज्यपाद के मन्तव्यानुसार - मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक बाह्य निमित्त की अपेक्षा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं, अतः ये परोक्ष कहलाते हैं। 'प्रत्यक्षमन्यत्' प्रत्यक्ष शब्द प्रति+अक्ष से बना है। यहाँ अक्ष शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जनातीत्यक्ष आत्मा' अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएं एकार्थक हैं, अत: अक्ष का अर्थ आत्मा होता है। इस प्रकार क्षयोपशम वाले या आवरण रहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है, अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादि की अपेक्षा से नहीं मात्र क्षयोपशम वाली या आवरण रहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। बृहत्कल्पभाष्य के कथनानुसार - अक्ष का अर्थ है - जीव। उसके प्रति प्रवर्तित होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। (आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है।) जो अक्ष से परतः ज्ञान होता है, वह परोक्ष है। (इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान परोक्ष है।)64 जिनभद्रगणि और जिनदासगणि के अनुसार - जो ज्ञानात्मा से सभी अर्थों, पदार्थों में व्याप्त होता है, वह अक्ष/जीव है। अक्ष द्वारा होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। यह अनिन्द्रिय ज्ञान है। आत्मा अमूर्त है, क्योंकि यह अपौद्गलिक है। द्रव्य इन्द्रियां और द्रव्य मन पौद्गलिक होने से मूर्त है। अमूर्त से मूर्त पृथक् (पर) है। अतः द्रव्येन्द्रियों और मन के माध्यम से जो मति-श्रुत ज्ञान होता है, वह धूम से होने वाले अग्निज्ञान के समान परिनिमित्तक होने से परोक्ष है। भावेन्द्रिय के कारण इन्द्रियज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है। परमार्थतः यह परोक्ष है, क्योंकि द्रव्येन्द्रियां पर हैं और भावेन्द्रियां द्रव्येन्द्रियों के अधीन है। आवश्यकचूर्णि में कहा है कि इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा स्वयं जिससे ज्ञेय को जानती है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। मलधारी हेमचन्द्र ने भाष्य की टीका में स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो समस्त पदार्थों का पालन/रक्षण और उपयोग करता है, वह अक्ष जीव है। साक्षात् अक्ष से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। जो ज्ञान साक्षात् आत्मा से नहीं, पर से होता है, वह परोक्ष है। यह इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान है। मलयगिरि के अनुसार इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष केवल आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। राजवार्तिक में अकलंक ने उल्लेख किया है कि - जो ज्ञान अपने होने में इन्द्रिय, मन, प्रकाश और उपदेश आदि की प्रधान रूप से अपेक्षा रखता है, वह परोक्ष ज्ञान कहलाता है।" जैसेकि जिस मनुष्य में गमन करने की शक्ति है, लेकिन वृद्धावस्था में यष्टि आदि के सहारे के बिना गमन नहीं कर सकता है, अतः यहाँ गमन क्रिया में यष्टि आदि प्रधान रूप से सहकारी हैं, वैसे ही 61. तत्त्वार्थसार, प्रथम अधिकार, गाथा 16-17 पृ. 6 63. सर्वार्थसिद्धि 1.12 पृ. 73 65. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 89-90, नंदीचूर्णि पृ. 23 67. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 89-90 की टीका 69. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.11.6 62. सर्वार्थसिद्धि, 1.11 पृ. 72 64. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा 24 66. आवश्यकचूर्णि 1. पृ. 7 68. आवश्यक मलयगिरि वृति पृ. 16