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द्वितीय अध्याय ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय
प्रत्येक भारतीय परम्परा में जीव का अंतिम लक्ष्य मोक्ष (निर्वाण) को स्वीकार किया गया है और उस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में ज्ञान को साधन माना गया है। सभी भारतीय दार्शनिक इस बात पर सहमत हैं कि अविद्या का अस्तित्व अनादिकाल से है। अविद्या अनादि है, परंतु अनंत नहीं, वह सान्त है, उसका नाश हो सकता है, चूंकि अविद्या बंधन का कारण है, अतः अविद्या के विपरीत विद्या ही मोक्ष का कारण हो सकती है। अविद्या का नाश विद्या किंवा ज्ञान से होता है इसलिए ज्ञान ही मोक्ष का कारण है। अतः भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में ज्ञान का विशेष महत्त्व है। महाभारत में कहा गया है कि वेद ज्ञान से शून्य और शास्त्रज्ञान से रहित ब्राह्मण काष्ठहस्ती अथवा पंखहीन पक्षी के समान है। भगवद्गीता के अनुसार इस पृथ्वी पर ज्ञान से बड़ा कोई पवित्र तत्त्व नहीं है। आगे उल्लेख किया है कि जिस प्रकार से प्रज्वलित अग्नि, ईधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है। जो जितेन्द्रिय श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है, वह तत्क्षण भगवत्प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है। शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, शुद्ध करने वाला इस लोक में दूसरा कोई तत्त्व नहीं है। अतः सभी भारतीय दर्शन एक मत से स्वीकार करते हैं कि ज्ञान ही जीव को सद्मार्ग दिखाता है और जब तक ज्ञान सम्यक् नहीं होगा तब तक जीव में हेय, ज्ञेय और उपादेय की बुद्धि विकसित नहीं होगी।
ज्ञान से ही जीव स्व-स्वरूप और पर-स्वरूप का एवं बंध, मोक्ष के कारणों का ज्ञाता-द्रष्टा होता है। क्योंकि बंधन से मुक्त होने के लिए अपने स्वरूप का, बंध एवं बंध के कारणों तथा बंधन से मुक्त होने की साधना का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान का अध्ययन जिसमें किया जाता है, वह ज्ञानमीमांसीय अध्ययन कहलाता है। ज्ञानमीमांसा जीवन दर्शन का अनादिकाल से आधार रही है। इसके अभाव में जीवन दर्शन का स्वरूप टिक नहीं सकता। अत: ज्ञानमीमांसीय अध्ययन में ज्ञान संबंधी समस्याओं की विवेचना है, जैसे - ज्ञान क्या है? ज्ञान का अर्थ क्या है? ज्ञान का स्वरूप क्या है? इत्यादि समस्याओं का युक्तियुक्त समाधान ज्ञानमीमांसीय अध्ययन में किया गया है।
प्रायः ज्ञान को आत्मा का गुण स्वीकार किया जाता है। इसमें भी मतान्तर प्राप्त होते हैं। प्रथम मान्यतानुसार ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है, यह मान्यता न्याय-वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत है। ज्ञान को आत्मा का गुण मानने की दूसरी परम्परा जैन दर्शन की है, जिसके अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक (मौलिक) गुण है। आत्मा में स्वाभाविक ज्ञान सामर्थ्य विद्यमान है तथा वह एक उपयोगमय तत्त्व है। अपनी इन दो स्वाभाविक विशेषताओं के कारण आत्मा सदैव किसी न किसी पदार्थ को विषय बनाकर उसे जानता हुआ ही विद्यमान होता है। जैनदर्शन में ज्ञान के बिना आत्मा एवं आत्मा के बिना ज्ञान का अस्तित्व ही स्वीकार्य नहीं है। प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में विशेषावश्यकभाष्य को आधार बनाते हुए मुख्यतः जैनदर्शन की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मान्य ज्ञान के स्वरूप की समीक्षा की जाएगी।
1. न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिहं विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति। - श्रीमद्भगवद्गीता, 4.38 2. ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा। - श्रीमद्भगवद्गीता, 4.37 3. ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति। - श्रीमद्भगवद्गीता, 4.39