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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यक भाष्य एवं बृहद्वृत्ति: एक परिचय
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विशेषावश्यकभाष्य में जैन आगमों में प्रतिपादित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन किया गया है। इस भाष्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें जैन धर्म की मान्यताओं का वर्णन मात्र जैन दर्शन की दृष्टि से न करते हुए अन्य दर्शनों के साथ तुलना, खण्डन और समर्थन आदि करते हुए किया गया है। अतः दार्शनिक दृष्टिकोण से भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनागमों का रहस्य जानने के लिए विशेषावश्यकभाष्य एक उपयोगी ग्रंथ है। इसमें अग्र लिखित विषयों का समावेश किया गया है -मंगल का स्वरूप, ज्ञानपंचक, निरुक्त, निक्षेप, अनुगम, नयवाद, सामायिक की प्राप्ति, सामायिक के बाधक कारण, चारित्र लाभ, प्रवचन, सूत्र अनुयोग का पृथक्करण, आचार नीति, कर्म सिद्धांत, स्याद्वाद, ग्रंथि भेद, देश विरति, सर्वविरति सामायिक आदि पांच चारित्र, शिष्य की योग्यता - अयोग्यता, गणधरवाद, निह्नव अधिकार, सामायिक के विविध द्वार, दिगम्बरवाद, नमस्कार सूत्र की उत्पत्ति, करेमि भंते आदि पदों की व्याख्या। विशेषावश्यक भाष्य अपने आप में एक अनूठा ग्रन्थ है। यदि कोई स्वाध्यायी सम्पूर्ण जैनागमों का अध्ययन नहीं कर सके तो भी यदि वह विशेषावश्यकभाष्य का स्वाध्याय करले तो उसे जैनागमों में वर्णित सभी विषयों का परिज्ञान हो सकता है।
( 3 ) चूर्णि - नियुक्ति और भाष्य की रचना के बाद जैनाचार्यों ने आगमों पर गद्यात्मक व्याख्या साहित्य लिखा । यह साहित्य शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में लिखा गया है, जो आज चूर्णिसाहित्य के नाम से प्रसिद्ध है। अर्थ की बहुलता हो, महान् अर्थ हो, हेतु, निपात और उपसर्ग से जो युक्त हो, गंभीर हो, अनेक पदों से समन्वित हो, जिसमें अनेक गम हों और जो नयों से शुद्ध हो, जिसे चूर्णि कहा जाता है। चूर्णियों में प्राकृत की लौकिक, धार्मिक आदि अनेक कथायें दी गई हैं ।
वाणिज्यकुलीन कोटिगणीय वज्रशाखीय जिनदासगणि महत्तर अधिकांश चूर्णियों के कर्त्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपका समय वि. सं. 650-750 के लगभग माना जाता है ।
आवश्यकचूर्णि निर्युक्ति के अनुसार लिखी गई है, भाष्य की गाथाओं का उपयोग भी यत्र-तत्र हुआ है। मुख्य रूप से भाषा प्राकृत है, किन्तु संस्कृत के श्लोक एवं गद्य पंक्तियाँ भी उद्धृत की गई हैं। इसमें कथाओं की प्रचुरता है। इसकी विषय वस्तु भी प्रायः आवश्यक नियुक्ति जैसी ही है।
( 4 ) टीका - मूल आगम, निर्युक्ति एवं भाष्य, प्राकृत भाषा में लिखे गये और चूर्णिसाहित्य में भी प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का प्रयोग हुआ है । इसके बाद आगमों पर संस्कृत भाषा में व्याख्याएं लिखी गई हैं, जिन्हें टीका कहा जाता है । टीकाएं आगम सिद्धांत को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी हैं । आगम - साहित्य पर सर्वप्रथम संस्कृत के टीकाकारों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का नाम सर्वप्रथम आता है, जिन्होंने विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति की रचना की ।
(अ) आवश्यकवृत्ति - आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकनिर्युक्ति पर भी वृत्ति लिखी। इस वृत्ति का नाम शिष्यहिता है । इसका ग्रन्थमान 22000 श्लोकप्रमाण है । हरिभद्र का काल सभी प्रमाणों के आधार पर ई० सन् 700 से 770 (वि. सं. 757 से 827) तक निश्चित किया गया है। आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रंथों की रचना की थी । आवश्यकवृत्ति की विषय वस्तु लगभग निर्युक्ति के समान है।
(आ) आवश्यक विवरण - आचार्य मलयगिरि ने भी आवश्यक सूत्र पर आवश्यकविवरण नामक वृत्ति लिखी है। वर्तमान में जो विवरण उपलब्ध है उसका ग्रंथमान 18000 श्लोक प्रमाण है। निर्युक्ति की गाथाओं पर सरल और सुबोध शैली में विवेचन किया गया है। आपका समय विद्वानों ने बारहवीं शताब्दी के आस-पास का स्वीकार किया है। आपकी उक्त टीका के अलावा नंदी, राजप्रश्नीय, पिंडनिर्युक्ति आदि से सम्बन्धित 25 टीका ग्रंथों का वर्णन प्राप्त होता है ।