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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय [43] है। यह मूल टीका उनके पूर्ववर्ती आचार्य जिनभद्र की है। यह विवरण न तो अति संक्षिप्त है, न अति विस्तृत। इसमें कथानक प्राकृत में है। कहीं-कहीं पद्यात्मक कथानक भी है। यत्र-तत्र पाठान्तर भी दिये गये हैं। विवरणकार ने आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति का भी उल्लेख किया है। कोट्याचार्य का काल विक्रम की आठवीं शताब्दी माना जाता है। मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने अपनी कृति विशेषावश्यकभाष्य-बृहद्वृत्ति में कोट्याचार्य को एक प्राचीन टीकाकार के रूप में रेखांकित किया है। प्रभावक चरित्रकार ने आचार्य शीलाङ्क को और कोट्याचार्य को एक माना है, इसी प्रकार पंडित सुखलाल संघवी09 ने भी कहा है कि शीलांक का ही अपर नाम कोट्याचार्य था। परन्तु डॉ. मोहनलाल मेहता के अनुसार शीलाङ्क और कोट्याचार्य दोनों का समय एक नहीं है। कोट्याचार्य का समय विक्रम की आठवीं शती है तो शीलाङ्क का समय विक्रम की नवीं-दसवीं शती है। अत: वे दोनों पृथक्-पृथक् हैं साथ ही शीलांगाचार्य और कोट्याचार्य एक ही व्यक्ति है, ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण नही मिलता है। कोट्याचार्य का प्रस्तुत विशेषावश्यक भाष्य पर जो विवरण है व न तो अतिसंक्षिप्त है और न अतिविस्तृत ही है। 10
कोट्याचार्य कृत विशेषावश्यकभाष्यविवरण का प्रकाशन प्राकृत, जैनविद्या व अहिंसा शोघ संस्थान, वैशाली (बिहार) द्वारा 1972 में हुआ है। मलधारी हेमचन्द्र एवं उनके द्वारा रचित शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति का वैशिष्ट्य
आचार्य मलधारी हेमचन्द्र की विशेषावश्यकभाष्य पर शिष्यहिता वृत्ति है। यह बृहत्तम कृति है। आचार्य ने भाष्य में जितने विषय आये हैं, उन सभी विषयों को बहुत ही सरल और सुगम दृष्टि से समझाने का प्रयास किया है। दार्शनिक चर्चाओं का प्राधान्य होने पर भी शैली में क्लिष्टता नहीं आने दी है। यह इस टीका की बहुत बड़ी विशेषता है। शंका-समाधान और प्रश्नोत्तर की पद्धति का प्राधान्य होने के कारण पाठक को अरुचि का सामना नहीं करना पड़ता। यत्र-तत्र संस्कृत कथानकों के उद्धरण से विषय-विवेचन और भी सरल हो गया है। इस टीका के बारे में यदि यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस टीका के कारण ही विशेषावश्यकभाष्य के पठन-पाठन में सरलता हो गई। इस टीका से भाष्यकार और टीकाकार दोनों के यश में असाधारण वृद्धि हुई है। यह टीका 28000 श्लोक प्रमाण विस्तृत है।11। मलधारी हेमचन्द्र का जीवन परिचय
आचार्य मलधारी अभयदेवसूरि की परम्परा में होने वाले पद्मदेवसूरि और राजशेखर ने यह प्रतिपादित किया है12 कि आचार्य अभयदेव को राजा कर्णदेव ने मलधारी की पदवी प्रदान की थी। इससे स्पष्ट होता है कि राजा कर्णदेव पर भी आचार्य अभयदेव का प्रभाव था। किन्तु विविधतीर्थकल्प में लिखा है कि राजा सिद्धराज ने यह सम्मान दिया।13 यदि सिद्धराज ने ऐसा किया होता तो श्रीचन्द्रसूरि इसका उल्लेख अवश्य करते, अतः अधिक सम्भावना यही है कि यह पदवी राजा कर्णदेव ने दी हो। कर्ण के बाद राजा सिद्धराज पर भी उनका प्रभाव रहा। आचार्य मलधारी अभयदेवसूरि ने राजा सिद्धराज पर अपने तप एवं शील के बल से जो प्रभाव डाला था, उस प्रभाव को उनके पट्टधर शिष्य आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने स्थिर रखा। राजा को उपदेश देकर उन्होंने अनेक प्रकार से
109. आवश्यकनियुक्ति, भूमिका, पृ. 45
110. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 349-350 111. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 413-414 112. गणधरवाद प्रस्तावना, पृ. 48 113. विविधतीर्थकल्प पृ. 77 (द्रष्टव्य - गणधरवाद प्रस्तावना, पृ. 48)