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[2] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
विशेषावश्यकगाथानाम् अकारादिक्रमः तथा विशेषावश्यकविषययाणाम् अनुक्रमः का प्रकाशन ई. 1932 में आगमोदय समिति, बम्बई द्वारा हुआ है। विशेषावश्यकभाष्य का व्यारव्या साहित्य विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति
टीकाकारों में सर्व प्रथम टीकाकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं। आचार्य जिनभद्रगणि ने स्वरचित विशेषावश्यकभाष्य पर स्वयं ने स्वोपज्ञवृत्ति लिखी। आचार्य ने अपनी टीका में मंगल-गाथा न लिखते हुए भाष्य की गाथा से ही व्याख्या करना शुरु कर दिया। आपकी व्याख्या शैली बहुत ही सरल, स्पष्ट एवं प्रसादगुण सम्पन्न है। लेकिन आचार्य यह वृत्ति पूर्ण नहीं कर सके और षष्ठ गणधर अर्थात् गाथा 1863 तक की टीका लिखकर ही दिवगंत हो गये। आगे का भाग कोट्याचार्य ने पूर्ण किया। आचार्य जिनभद्र के देहावसान का निर्देश करते हुए पष्ठ गणधरवक्तव्यता के अन्त में कहा है - निर्माप्य षष्ठगणधरवक्तव्यं किल दिवंगताः पूज्या: अनुयोगमार्गदेशिका-जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः। अर्थात् छठे गणधरवाद की व्याख्या करने के बाद अनुयोगमार्ग का दिग्दर्शन कराने वाले पूज्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण इस लोक से चल बसे। यह वाक्य आचार्य कोट्याचार्य ने जिनभद्रगणि की मृत्यु के बाद लिखा है, ऐसा प्रतीत होता है। इसके बाद कोट्याचार्य उन्हीं दिवंगत आचार्य जिनभद्रगणि को नमस्कार करते हुए आगे की की वृत्ति प्रारंभ करते हैं - 'अथ सप्तमस्य भगवतो गणधरस्य वक्तव्यतानिरूपणसम्बन्धनाय गाथाप्रपञ्चः।' कोट्याचार्य की निरूपण शैली भी आचार्य जिनभद्रगणि की तरह ही प्रसन्न और सुबोध है। विषय-विस्तार कुछ अधिक है, पर कहीं कहीं। प्रस्तुत विवरण की सामाप्ति करते हुए वृत्तिकार कहते हैं - ".....चेति परमपूज्यजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणकृत -विशेषावश्यकप्रथमाध्ययन-सामायिकभाष्यस्य विवरणमिदं समाप्तम्।"107 इसके बाद सूत्रकार ने स्वयं की ओर से निम्न भाव जोड़े -"सूत्रकारपरमपूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रारब्धा समर्थिता श्रीकोट्याचार्यवादि-गणिमहत्तरेण श्रीविशेषावश्यक लघुवृत्तिः। संवत् १४९१ वर्षे द्वितीयज्येष्ठवदि ४ भूमे श्रीस्तम्भतीर्थे लिखितमस्ति"
उपर्युक्त वाक्य से स्पष्ट है कि लेखक ने वृत्तिकार श्री जिनभद्र का नाम ज्यों का त्यों रखा, किन्तु अपना नाम बदलकर कोट्यार्य से कोट्याचार्य रखते हुए अपने नाम के साथ महत्तर की उपाधि लगा दी। इस प्रकार उनका नाम हो गया - कोट्याचार्यवादिगणिमहत्तर। इसी के साथ विशेषावश्यकभाष्य विवरण का नाम भी अपनी ओर से विशेषावश्यकलघुवृत्ति रख दिया है।108
विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति (कोट्याचार्य कृत विशेषावश्यकभाष्यविवरण सहित) का प्रकाशन ई. 1936-37 में ऋषभदेव जी केसरीमल जी प्रचारक (श्वेताम्बर) संस्था द्वारा तथा स्वोपज्ञवृत्ति का प्रकाशन भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद द्वारा ई. 1966-1968 में तीन भागों में हुआ है। जिसके दो भागों का सम्पादन पंडिल दलसुखभाई मालवणिया तथा तीसरे भाग का सम्पादन पंडित बेचरदास जोशी द्वारा किया गया है। विशेषावश्यक भाष्यविवरण
कोट्याचार्य द्वारा आवश्यक सूत्र पर 13700 श्लोक प्रमाण विशेषावश्यकभाष्यविवरण नामक टीका लिखी है। प्रस्तुत विवरण में टीकाकार ने आवश्यक की मूलटीका का अनेक बार उल्लेख किया 107. हस्तलिखित पृ. 987 (उदधृत- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 330) 108. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 327-330