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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
बादर काययोग का निरोध करते हैं। फिर सूक्ष्म मनोयोग, सूक्ष्म वचनयोग, सूक्ष्म उच्छ्वास-नि:श्वास तथा सूक्ष्म काययोग का निरोध करते हैं। केवली के योग निरोध को ध्यान कहा जाता है, इसलिए मन के अभाव में भी केवली के ध्यान होता है। योग-निरोध की शैलेषी अवस्था में पांच ह्रस्व अक्षरों का उच्चारण करे इतने काल में जीव सिद्ध बुद्ध मुक्त हो जाता है।
जीव सिद्ध होते ही एक समय में लोकांत में स्थित सिद्धालय में पहुंच जाता है। सिद्ध जीव की पूर्वप्रयोग, संग रहितता, बन्धन का टूटना और गति परिणाम के कारण उर्ध्वगति ही होती है। सिद्ध जीव लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, क्योंकि अलोक में गति में सहायक धर्मास्तिकाय नहीं है, इसलिये सिद्धों की गति अलोक में नहीं हो सकती है।
छद्मस्थ में दर्शन और ज्ञान के विषय में श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर परम्परा दोनों एकमत हैं। केवली के विषय में दिगम्बर परम्परा ने एक मत से युगपद्वाद का समर्थन किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा मे तीन मत प्राप्त होते हैं -1. क्रमवाद, 2. युगपद्वाद, 3. अभेदवाद। हरिभद्रसूरि के अनुसार युगपद्वाद के समर्थक आचार्य सिद्धसेन, क्रमवाद के समर्थक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और अभेदवाद के समर्थक वृद्धाचार्य हैं। अभयदेवसूरि के अनुसार क्रमवाद के समर्थक जिनभद्र, युगपद्वाद के समर्थक मल्लवादी और अभेदवाद के समर्थक सिद्धसेन दिवाकर हैं। इस प्रकार हरिभद्र
और अभयदेव में मतभेद है। ___1. अभेदवाद - केवली भगवान् के साकारोपयोग और अनाकारोपयोग - केवलज्ञान केवलदर्शन दोनों एक साथ प्रयुक्त होते हैं अर्थात् केवली निश्चित रूप से एक समय में जानते-देखते हैं, छद्मस्थ नहीं। 2. युगपद्वाद - केवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपद् होता है। जैसे सूर्य का प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं। 3. क्रमवाद - जीवों के उपयोग का स्वभाव ही ऐसा है कि वह क्रमशः ही होता है। इसलिए केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति भी क्रमशः ही होती है।
तीनों मतों में से क्रमवाद वाला मत अधिक उचित प्रतीत होता है क्योंकि 1 जीव साकार उपयोग में ही सिद्ध होता है। 2. आगम में केवली के विषय में भी जाणइ और पासइ क्रिया का प्रयोग किया गया है। 3. आगम में केवलज्ञान का ग्रहण साकार उपयोग में और केवलदर्शन का अनाकार उपयोग में किया गया है। 4. लब्धि की अपेक्षा दोनों युगपद् रहते हैं, किन्तु उपयोग एक समय में एक का ही होता है। जो दोष केवली में युगपद् दोष मानने पर प्राप्त होते हैं, वही उपयोग छद्मस्थ में भी प्राप्त होते है। 6. भगवतीसूत्र शतक 18, उद्देशक 8 में केवली में युगपद् उपयोग का निषेध किया गया है, इत्यादि अनेक हेतुओं से केवली में क्रमवाद की ही स्थापना होती है।
उपाध्याय यशोविजय (17-18वीं शती) ने तीनों वादों की समीक्षा की है और नय दृष्टि से उनका समन्वय करने का प्रयत्न किया है। जैसे कि ऋजुसूत्र नय के दृष्टिकोण से एकान्तरउपयोगवाद उचित जान पड़ता है। व्यवहारनय के दृष्टिकोण से युगपद्-उपयोगवाद संगत प्रतीत होता है। संग्रहनय से अभेद-उपयोगवाद समुचित प्रतीत होता है।
केवली में केवलज्ञान के उपयोग की स्थिति एक समय की ही होती है।
केवली के शब्द श्रोता के लिए द्रव्यश्रुत मात्र हैं। शेष छद्मस्थों को जो श्रुत के अनुसार ज्ञान होता है, वह क्षायोपशमिक उपयोग के कारण भावश्रुत कहलाता है। केवली का वचनयोग श्रोता के श्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत है। इसका अर्थ यह हुआ है कि पूर्वोक्त अर्थ केवलज्ञान से जानकर