________________
सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
[501]
सिद्धों के यह भेद सिद्ध होने से पूर्व भव की अपेक्षा से ही घटित होते हैं। उक्त पन्द्रह भेदों का समावेश सामान्य रूप से 1. तीर्थ, 2. तीर्थकर, 3. उपदेश, 4. लिंग, 5. बाह्य चिह्न और 6. संख्या इन छह भेदों में भी किया जा सकता हैं।
केवलज्ञान की प्राप्त में मुख्य हेतु कषाय (मोह) का क्षय है। मोहनीय कर्म क्षय होते ही अन्र्तमुहूर्त में शेष ज्ञानावरणीय आदि तीन कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञानी की उत्पत्ति में शुक्लध्यान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शुक्लध्यान के चार भेद होते हैं - 1. पृथक्त्ववितर्क - एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों का पृथक् पृथक् रूप से विस्तार पूर्वक पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथक्त्व वितर्क सविचारी शुक्ल ध्यान है। 2. एकत्ववितर्क - पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व (अभेद) से किसी एक पदार्थ का अथवा पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व वितर्क अविचारी ध्यान है। 3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति - मोक्ष जाने से पहले केवली भगवान् मन और वचन इन दो योगों का तथा अर्द्ध काययोग का भी निरोध कर लेते हैं। उस समय उनके सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान होता है। 4. व्युपरतक्रियानिवर्ति - शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली भगवान् सभी योगों का निरोध कर लेते हैं। तब उनके व्युपरतक्रियानिवर्ति शुक्ल ध्यान होता है।
समुद्घात - एकाग्रतापूर्वक प्रबलता के साथ वेदनीयादि कर्मों के प्रदेशों की घात करना समुद्घात कहलाता है। प्रबलता से वेदनीयादि तीन कर्मों की स्थिति और अनुभाग को आयु के समान करना केवली समुद्घात है। इसका कालमान अन्तर्मुहूर्त (आठ समय) का होता है।
जिनको आयुष्य में छह मास शेष रहते केवलज्ञान हुआ है, वे केवली समुद्घात करते हैं अथवा तीन कर्म स्थिति को आयुष्यकर्म के समान करने के लिए केवली समुद्घात किया जाता है। सभी जीवों के ऐसी स्थिति बने यह आवश्यक नहीं है, अतः सभी जीव केवली समुद्घात नहीं करते हैं। आयुष्य का अन्तर्मुहर्त शेष रहते हुए समुद्घात किया जाता है।
केवली समुद्घात के आठ समय में से प्रथम समय में शरीर प्रमाण दण्ड, दूसरे समय में कपाट, तीसरे समय में मंथान और चौथे समय में अंतर पूरित करके लोक को सम्पूर्ण रूप से स्पर्श करते हैं। पुनः प्रतिलोम क्रम से पांचवें समय में लोक का संहरण करते हैं, छठे समय में मन्थान का, सातवें समय में कपाट का और आठवें समय में दण्ड का संहरण और शरीरस्थ होना ये दो क्रियाएं होती हैं। इन आठ समयों में क्रम चार अघाती कर्मों की 85 प्रकृतियों क्षय होता है। केवली समुद्घात में मनयोग और वचनयोग का व्यापार नहीं होता, केवल काययोग की प्रवृत्ति होती है। उसमें भी पहले और आठवें समय में औदारिक काययोग, दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र काययोग और तीसरे, चौथे व पांचवें समय में कार्मण काययोग प्रवर्तता है। समुद्घात के अंतर्मुहूर्त बाद केवली योगों का निरोध करते हैं।
योग, निरोध में दोनों परम्पराओं में मतभेद है - श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार केवली सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान के तीसरे पाद का ध्यान करते हुए सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं। उसके बाद वचन योग, फिर अन्त मे काययोग निरोध के साथ ही श्वासोच्छ्वास का निरोध करते हैं। पूर्ण योगनिरोध होते ही अयोगी या शैलेषी अवस्था प्राप्त हो जाती है। जिस अवस्था में केवली शैल अर्थात् मेरुपवर्त की तरह स्थिर हो जाते हैं, उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवली बादर काययोग से बादर मनोयोग का, उसके बाद बादर वचनयोग का निरोध करते हैं। पुनः बादर काययोग से बादर उच्छ्वास-नि:श्वास का निरोध करके