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सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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५. काल द्वार - जीव के साथ केवलज्ञान कितने समय तक रहेगा, इसका उल्लेख काल द्वार में किया गया है। केवलज्ञान एक बार उत्पन्न होने के बाद नष्ट नहीं होता है, अतः केवलज्ञान का काल सादि अपर्यवसित (अनन्त) हैं।
६. अन्तर द्वार - केवलज्ञान एक बार प्राप्त होने के बाद नष्ट नहीं होता है. इसलिए केवलज्ञान का अन्तर नहीं होता है।
७. भाग द्वार - मतिज्ञान पांच ज्ञान वालों की जितनी संख्या है, उसमें केवलज्ञान वालों का कितना हिस्सा है। केवलज्ञान वाले शेष ज्ञान वालों का बहुत अनन्त भाग है। क्योंकि बाकी के ज्ञानवाले केवलज्ञानी से विशेषाधिक हैं और केवलज्ञान वाले तो सर्व लोक में अनन्त है। मति आदि अज्ञान वाले केवलज्ञान से अनन्त गुणा अधिक है।
6.भाव द्वार - औदयिक आदि पांच भावों में से केवलज्ञान मात्र क्षायिक भाव में ही होता है।
९. अल्पबहुत्व द्वार - मति आदि पांच ज्ञानों में किस ज्ञान वाले केवलज्ञान से कम ज्यादा है, इसका उल्लेख अल्पबहुत्व द्वार में किया है। सबसे थोड़े मनः पर्यवज्ञानी, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा, उनसे मति श्रुतज्ञानी परस्पर तुल्य विशेषाधिक, उनसे विभंगज्ञानी असंख्यातगुणा, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणा। उनसे समुच्चय ज्ञानी विशेषाधिक। उनसे मति, श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य अनन्तगुणा।
समीक्षण प्राचीन काल में सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग होता रहा है, लेकिन अन्त में 'केवलज्ञान' शब्द ही इसमें रुढ़ हो गया। केवलज्ञान एक परिपूर्ण ज्ञान है। सकल आवरणों से रहित होकर सभी वस्तुओं के स्वरूप को प्रतिभासित करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। केवलज्ञान को परिभाषित करते हुए पूर्वाचार्यों ने अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है - 1. परिपूर्ण, 2. समग्र (सम्पूर्ण), 3. सकल, 4. असाधारण, 5. निरपेक्ष, 6. विशुद्ध, 7. सर्वभावप्रज्ञापक, 8. संपूर्ण रूप लोकालोक विषयक, 9. अनंत पर्याय, 10. अनन्त, 11. एकविध, 12. असपत्न, 13. शाश्वत, 14. अप्रतिपाती, 15. असहाय। केवलज्ञान समस्त पदार्थों को विषय करने वाला है। यह लोकालोक का जानने विषय में आवरण रहित है, तथा जीव द्रव्य की ज्ञान शक्ति के जितने अंश है, जिस ज्ञान में संपूर्ण व्यक्त हों वह परिपूर्ण ज्ञान है। मोहनीय और वीर्यांतराय का सर्वथा क्षय हो जाने पर जो ज्ञान अप्रतिहत शक्तियुक्त और निश्चल हो उसको समग्र कहते हैं, इत्यादि।
केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान होने से इसके अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानों के समान भेद नहीं होते हैं। लेकिन स्वामी की अपेक्षा से इसके दो भेद होते हैं - 1.भवस्थ केवलज्ञान - मनुष्य भव में रहते हुए चार घाति-कर्म नष्ट होने से उत्पन्न होने वाला ज्ञान भवस्थ केवलज्ञान है। 2. सिद्ध केवलज्ञान - जिन्होंने अष्ट कर्मों को क्षय कर सिद्धि प्राप्त करली, ऐसे केवली का केवलज्ञान। मीमांसक के अनुसार मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता है तथा वैशेषिक के अनुसार मुक्त जीव में ज्ञान नहीं होता है। उक्त दोनों भेदों से उनके मत का खण्डन हो जाता है।
भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का होता है - 1. सयोगी भवस्थ केवलज्ञान (सयोगी अवस्था में उत्पन्न हुआ केवलज्ञान), 2. अयोगी भवस्थ केवलज्ञान (अयोगी अवस्था में उत्पन्न हुआ केवलज्ञान)
सयोगी भवस्थ केवलज्ञान के भी दो प्रकार हैं - प्रथम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अप्रथम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान अथवा चरम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अचरम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान।