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[498] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन की भजना एवं नो पर्याप्त नो अपर्याप्त (सिद्ध) में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से केवलज्ञान की नियमा, प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से केवलज्ञान नहीं होता है। अपर्याप्त में दोनों अपेक्षाओं से केवलज्ञान नहीं होता है।
17. सूक्ष्म द्वार - बादर और नो सूक्ष्म नो बादर (सिद्ध) को केवलज्ञान होता है। सूक्ष्म में केवलज्ञान नहीं होता है। बादर में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा केवलज्ञान की भजना एवं नो सूक्ष्म नो बादर (सिद्ध) में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से केवलज्ञान की नियमा, प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से केवलज्ञान नहीं होता है। सूक्ष्म में दोनों अपेक्षाओं से केवलज्ञान नहीं होता है।
18. संज्ञी द्वार - नो संज्ञी नो असंज्ञी को केवलज्ञान होता है। संज्ञी और असंज्ञी केवलज्ञान के अधिकारी नहीं हैं, शंका - त्रसकाय जीव केवलज्ञान का अधिकारी होता है तो पंचेन्द्रिय और संज्ञी जीव किसलिए अधिकारी नहीं? समाधान - इसकी संगति इस प्रकार बैठेंगी कि केवलज्ञान में इन्द्रियों और संज्ञा का उपयोग नहीं होता, इसीलिए अनिन्द्रिय और नोसंज्ञी नो असंज्ञी जीव ही केवलज्ञान का अधिकारी है।
नो संज्ञी नो असंज्ञी में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से केवलज्ञान की नियमा, प्रतिपद्यमान में भजना है एवं संज्ञी और असंज्ञी में दोनों अपेक्षाओं से केवलज्ञान नहीं होता है।
19. भव्य द्वार - भवी और नो भवी नो अभवी (सिद्ध) को केवलज्ञान होता है। अभवी को केवलज्ञान नहीं होता है। भवी में पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा केवलज्ञान की भजना एवं नो भवी नो अभवी (सिद्ध) में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से केवलज्ञान की नियमा, प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से केवलज्ञान नहीं होता है। अभवी में दोनों अपेक्षाओं से केवलज्ञान नहीं होता है।
जिनमें मुक्त होने की योग्यता नहीं होती, वे जीव अभवी और जिनमें मोक्षगमन की योग्यता होती है। वे जीव भव्य कहलाते हैं। नो भवी और नो अभवी उपर्युक्त दोनों लक्षणों से रहित होते हैं।
20. चरम द्वार - चरम (भवस्थ केवली) और अचरम (सिद्ध भगवान्) को केवलज्ञान होता है। चरम में पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा केवलज्ञान की भजना एवं अचरम (सिद्ध) में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से केवलज्ञान की नियमा, प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से केवलज्ञान नहीं होता है।
२. द्रव्य प्रमाण द्वार - केवलज्ञान कितनी संख्या में होते हैं, इसका वर्णन इस द्वार में किया गया है। प्रतिपद्यमान की अपेक्षा केवलज्ञान प्राप्त करने वाला एक समय में जघन्य एक और उत्कृष्ट 108 होते हैं और पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा भवस्थ केवली जघन्य दो करोड उत्कृष्ट नव करोड़ होते हैं और अनन्त सिद्धों में केवलज्ञान होता है।
३-४. क्षेत्र और स्पर्शन द्वार - यहाँ क्षेत्र का अर्थ अवगाहना क्षेत्र है। केवलज्ञानी का शरीर लोक के कितने भाग को अवगाहित करता है। स्पर्श द्वार भी क्षेत्र द्वार के समान है।
केवलज्ञानी केवली समुद्घात में लोक के संख्यातवें भाग में नहीं होते हैं, असंख्यातवें भाग में होते हैं। (शरीरस्थ तथा दण्डकपाट अवस्था के समय में) अनेक संख्यात भागों में नहीं होते हैं, अनेक असंख्याता भागों में होते हैं (मथान अवस्था के समय) सर्व लोक में भी होते हैं (समग्र लोक व्याप्त के समय में)। स्पर्शना अवगाहना के अनुसार (अवगाढ़ क्षेत्र की अवगाहना तथा अवगाढ़ क्षेत्र
और उसके पार्श्ववर्ती क्षेत्र की स्पर्शना होती है।) अर्थात् केवलज्ञानी जघन्य लोक के असंख्यातवें भाग में और उत्कृष्ट (समुद्घात की अपेक्षा) पूरे लोक में होते हैं।