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सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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11. केवली के योगों का सदाव
दोनों परम्पराओं में केवलज्ञानी को सयोगी और अयोगी दोनों रूपों में स्वीकार किया गया है। वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगी केवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेशों में परिस्पंद होता है वह योग है।286 12. केवली और मत्यादिज्ञान
तत्त्वार्थसूत्र के पहले कुछ आचार्यों का मानना था कि केवली के मत्यादिज्ञान हो सकते हैं, मात्र इतना अन्तर है कि जैसे सूर्य की उपस्थिति में अग्नि, चन्द्र आदि का तेज मंद हो जाता है वैसे ही केवलज्ञान की उपस्थिति में मति आदि ज्ञान अकिंचित्कर बन जाते हैं। उमास्वाति आदि आचार्यों ने इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहा है कि केवलज्ञान क्षायिक है287 और पूर्णशुद्ध288 है। इससे क्षायोपशमिक और प्रादेशिक अशुद्धि वाले मत्यादि ज्ञानों का केवलज्ञान के साथ में कोई सम्बन्ध नहीं है । अत: केवलज्ञान होते ही चारों ज्ञान छूट जाते हैं। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में भगवान् ऋषभदेव के वर्णन में केवलज्ञान की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि - "केवलमसहायं-नटुंमि उ छाउमथिए नाणे।''290 तथा प्रज्ञापना सूत्र के 29 वें पद में केवलज्ञान की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि - केवलं-एकं मत्यादिज्ञान निरपेक्षत्वात्, “नटुंमि उ छाउमथिए नाणे" (नष्टे तु छाद्मस्थिके ज्ञाने) इति वचनात् शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलंकविगमात् संकलं वा केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणी विगतम:291 इत्यादि प्रमाणों से चार ज्ञान का छूटना स्पष्ट है। जो ऐसी युक्ति करते हैं कि आगम में सयोगी-अयोगी केवली को पंचेन्द्रिय कहा है, उससे उनमें मत्यादिज्ञान का कार्यरूप इन्द्रियपना हो सकता है? तो इसका उत्तर यह है कि केवली के पंचेन्द्रियपना द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा है, भावेन्द्रिय की अपेक्षा नहीं 292 13. अहंतों को ही केवलज्ञान क्यों, अन्य को क्यों नहीं?
हे अर्हन्! वह सर्वज्ञ आप ही हैं, क्योंकि आप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिए हैं कि युक्ति और आगम से आपके वचन अविरुद्ध हैं। वचनों में विरोध इसलिए नहीं है क्योंकि आपका इष्ट (मुक्ति आदि तत्व) प्रमाण से बाधित नहीं है। किंतु आपके अनेकांत मतरूप अमृत का पान नहीं करने वाले तथा सर्वथा एकांत तत्व का कथन करने वाले और अपने को आप्त समझने के अभिमान से दग्ध हुए एकांतवादियों का इष्ट (अभिमत तत्व) प्रत्यक्ष से बाधित है।93 14. ईपिथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं
प्रश्न - जल के बीच पड़े हुए तप्त लोहपिण्ड के समान ईर्यापथिककर्म रूपी जल को अपने सभी आत्मप्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्मा के समान कैसे हो सकते हैं? उत्तर - ईर्यापथकर्म गृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है, क्योंकि वह सरागी के द्वारा ग्रहण किये गये कर्म के समान पुनर्जन्म रूप संसार फल को उत्पन्न करने वाली शक्ति से रहित है। .....बद्ध होकर भी वह बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समय में ही उसकी निर्जरा देखी जाती है। .....स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं है कारण कि ईर्यापथिक बंध का सत्त्वरूप से जिनेन्द्र भगवान् के अवस्थान नहीं पाया जाता ...उदीर्ण होकर भी वह उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वह दग्ध गेहूं के समान निर्जीवभाव को प्राप्त हो गया है 294 286. सर्वार्थसिद्धि, 6.1 पृ. 244
287. तत्त्वार्थभाष्य 1.31 288. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.30.7,8 289. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 155, नंदीचूर्णि पृ. 40, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 41, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 134 290. जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति, वक्षस्कार 2, पृ. 150
291. प्रज्ञापना वृत्ति, पद 29, पृ. 238 292. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.30.9
294. समन्तभद्र, आप्तमीमांसा, गाथा 6-7 294. षटखण्डागम, पु. 13, 5.4.24, पृ. 51-52