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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
8. केवली के मन होता है अथवा नहीं?
श्वेताम्बर परम्परा में - भगवती सूत्र के अनुसार केवली भगवान् देव और मनुष्यों को मन से पूछे गये प्रश्न का जवाब मन से ही देते हैं 81 अतः देवादि के द्वारा मन से पूछ हुए प्रश्नों का उत्तर देने के लिए केवलियों को मनोयोग प्रवर्तनाने की आवश्यकता होती है। उपदेशादि में वचन योग की
और विहारादि में काययोग की प्रवृत्ति करते हैं। केवली किसी भी योग की प्रवृत्ति इच्छापूर्वक करते हैं, सहज नहीं।
दिगम्बर परम्परा में - केवली के अतीन्द्रिय ज्ञान होते हुए भी उनके द्रव्य मन का सद्भाव पाया जाता है, लेकिन वे द्रव्य मन का उपयोग नहीं करते हैं, क्योंकि केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है।
प्रश्न - केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहे तो भी वहाँ उसका कोई कार्य नहीं होता है?
उत्तर - द्रव्यमन के कार्य रूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का भले ही अभाव हो, परन्तु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि द्रव्य मन की वर्गणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न हेतु किसी भी प्रकार का प्रतिबंधक कारण नहीं पाया जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पंद रूप प्रयत्न होता है, उसे मनोयोग कहते हैं।82 9. भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?
अरहंत परमेष्ठी में भाव मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव हो सकता है, क्योंकि वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं।
प्रश्न - अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुम्भकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।283 10. केवली नो संज्ञी-नो असंज्ञी
प्रश्न - मन सहित होने के कारण क्या सयोगी केवली भी संज्ञी होते हैं?
उत्तर - नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मन के अवलम्बन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। प्रश्न - तो केवली असंज्ञी होते हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों को साक्षात् कर लिया है, उन्हें असंज्ञी मानने में विरोध आता है। प्रश्न - केवली असंज्ञी होते हैं, क्योंकि वे मन की अपेक्षा के बिना ही विकलेन्द्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं? उत्तर - यदि मन की अपेक्षा न करके ज्ञान की उत्पत्ति मात्र का आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपने के कारण होती तो ऐसा होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित् मन के अभाव से विकलेन्द्रिय जीवों की तरह केवली के बुद्धि के अतिशय का अभाव भी हो जायेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।284 इसलिए क्षायोपशमिक ज्ञानी संज्ञी होते हैं, क्षयज्ञानी (केवली) संज्ञी नहीं होते है। संज्ञा का अर्थ है, अतीत का स्मरण और अनागत का चिन्तन। केवली इस संज्ञा से अतीत होते हैं, वे नो संज्ञी - नो असंज्ञी होते हैं 285
281. भगवतीसूत्र, श. 5 उ. 4 पृ. 44286 283. षट्खण्डागम, पु. 1,1.1.123 पृ. 368 285. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 518
282. षट्खण्डागम, पु. 1,1.1.50 पृ. 284 284. षटखण्डागम, पु. 1,1.1.172 पृ. 408